1. कहानी की विधाएँ
2. कहानी के तत्व
३. कहानी की परिभाषा
४. कहानी का उदभव और विकास
५. मन्नू मन्नू भंडारी के व्यक्तित्व और कृतित्व
६. रचनाएँ और उपलब्धियाँ
७. मन्नू भंडारी की जीवन यात्रा
८. उपसंहार
हिन्दी साहित्य की
विधाएँ: हिन्दी साहित्य की मुख्य तीन विधाएँ हैं –
1. काव्य
2. गद्द
3. चम्पू काव्य।
गद्द साहित्य के अंतर्गत – कहानी, जीवनी, आत्मकथा, नाटक, एकांकी, निबंध आदि
अनेक विधाएँ हैं।। गद्द की सभी विधाओं में कहानी की विधा सबसे
पुरानी मानी जाती है। कहानी का आरम्भ कब और कहाँ हुआ यह बताना
कठिन है। पुराणों और इतिहासों में भी कहानियाँ दिखाई पड़ती हैं जैसे – ईसॉप कथाएं,
पंचतंत्र कथाएँ, जातक कथाएँ आदि जो आज के समय में भी बहुत मशहूर हैं। यहाँ हम कह
सकते है – ‘old is gold अथार्त सोने की चमक कभी भी काम नहीं होती। यह निर्विवाद सत्य है कि मानव के
मन को प्रभावित करने के लिए कहानी में अद्भूत क्षमता होती है। पहले कहानी का उद्देश्य
उपदेश देना और मनोरंजन करना माना जाता था लेकिन आज कहानियों का मुख्य उद्देश्य
मानव जीवन की विविध प्रकार की समस्याओं और संवेदनाओं को आम जनता तक पहुंचाना है। यही कारण है कि प्राचीन कहानियों
से आधुनिक हिन्दी कहानियाँ बिल्कुल ही अलग है।
कहानी के तत्व – साधारणतया कहानी के छ: तत्व माने गए है –
1. कथावस्तु
2. चरित्र- चित्रण
3. संवाद
4. देशकाल या वातावरण
5. उद्देश्य और
6. शैली।
1. कथावस्तु – कथावस्तु कहानी का
प्रमुख अंग है। कथावस्तु के बिना कहानी की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। कथावस्तु जीवन
की अनेक दिशाओं और क्षेत्रों से लिया जाता है जैसे – पुराण, इतिहास, समाज,
राजनीतिक आदि। इनमे से किसी भी विषय को चुनकर कथानक अपनी महल खड़ी कर सकता है।
2. चरित्र-चित्रण- चरित्र- चित्रण के अंतर्गत
कहानी जिस व्यक्ति की होती है वही उस कहानी का चरित्र कहलाता है। लेकिन कहानियों में
चरित्रों की संख्या काम होनी चाहिए। तभी कहानीकार किसी चरित्र को अन्दर और बाहर
दोनों पक्षों का अधिक से अधिक विश्लेषण कर सकता है।
3. संवाद – पहले संवाद कहानी का अभिन्न अंग माना जाता
था। अब इसकी अनिवार्यता समाप्त हो गई है। आज ऐसी
अनेकानेक कहानियाँ लिखीं गई है या लिखी जा रहीं है जिसमे संवाद का एकदम अभाव रहता
है। सारी कहानियाँ वर्णात्मक या मनोविश्लेषनात्मक शैली में लिख दी जाती है।
इसलिये संवाद की कही भी आवश्यकता नहीं पड़ती है। लेकिन संवाद से
कहानी के पात्र सजीव और स्वभाविक बन जाते है और कथा-वस्तु सम्वाद के माध्यम से
पाठकों को बांधे रखती है।
4. देशकाल – कहानी देश काल
की उपज होती है। इसलिए हर देश की कहानी एक दुसरे से अलग होती है। भारत या किसी भी
भू-भाग की लिखी कहानियों का अपना वातावरण होता है जिसकी संस्कृति, सभ्यता, रूढ़ि
संस्कार का प्रभाव उसपर स्वभाविक रूप से पड़ता है।
5. उद्देश्य - उद्देश्य
कहानी का एक तत्व माना जाता है क्योंकि सच तो यह है कि किसी भी विधा की रचना निरुद्देश्य
नहीं होता है। हर कहानी के पीछे कहानीकार का कोई न कोई प्रयोजन जरुर होता है। यह उद्देश्य
कहानी के आवरण में छिपा होता है।
6. शैली- शैली कहानी के
कलेवर को सुसज्जित करनेवाला कलात्मक आवरण होता है। इसका सम्बंध कहानीकार के आतंरिक
और बाहरी पक्षों से रहता है। कहानीकार की शैली ऐसी हो जो पाठकों को अपनी ओर आकर्षित
कर सके। यह काम भाषा शक्ति के द्वारा होता है। कहानीकार की भाषा में इतनी शक्ति
होनी चाहिए कि वह पाठक को अपनी मोह पाश में बांध दे। अत: हम कह सकते हैं कि कहानी
रचना एक कलात्मक विधान है जो अभ्यास और प्रतिभा के द्वारा ही रूप ग्रहण करती है।
कहानी की परिभाषा- युग प्रवर्तक
साहित्यकार प्रेमचंद की राय में कहानी गमले का फूल है। ‘कहानी वह ध्रुपद की तान
है, जिसमें गायक महफिल शुरु होते ही अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा दिखा देता है। एक क्षण
में चित्त को इतने माधुर्य से परिपूर्ण कर देता है कि जितना रात भर गाना सुनने से
भी नहीं हो सकता है।’ डा. श्रीपति शर्मा राय के शब्दों में ‘कहानी वह रचना है
जिसमें जीवन के किसी एक अंग या किसी एक मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का
उद्देश्य होता है। ‘अज्ञेय ने कहानी को एक सूक्ष्म दर्शी यन्त्र कहा है।’ डा. गणपति
गुप्त ने ठीक ही कहा है कि प्राचीन कहानियाँ स्वर्ग लोक की कल्पना थी, तो आधुनिक
कहानी हमें धरती के सुख-दु:ख का सस्मरण कराती है।’ वैसे तो कहानी की और भी अनेक परिभाषाएं
दी जा सकती है पर किसी भी साहित्यिक विधा को वैज्ञानिक परिभाषा में नहीं बांधा जा
सकता है। साहित्य में विज्ञान की सुनिश्चितता नहीं होती, इसलिए उसकी जो भी परिभाषा
दी जाएगी वह अधूरी है।
हिन्दी कहानी का उद्दभव
और विकाश - 19 वी. शदी के गद्य में एक नई विधा का विकास हुआ
जिसे कहानी के नाम से जाना जाता है। बंगला में इसे ‘गल्प’ कहा गया है। कहानी ने अंग्रेजी से हिन्दी तक का सफर बंगला के माध्यम
से शुरु किया। गद्य साहित्य में कहानी एक अत्यंत ही लोकप्रिय विधा है। मनुष्य के जन्म के
साथ-साथ कहानी का भी जन्म हुआ। हमारे देश में कहानियों की बहुत ही बड़ी और संपन्न परम्परा रही है। वेदों,
उपनिषदों तथा ब्रह्मणों में वर्णित ‘यम-यमी, नहुष, ययाति, शकुन्तला, नल- दमयंती
जैसे आख्यान कहानी के ही प्राचीन रूप है। प्राचीन काल में सदियों तक प्रचलित वीरों
तथा राजाओं के शौर्य, प्रेम, न्याय, ज्ञान, साहस, डर, समुद्रीयात्रा, राजकुमार तथा राजकुमारियों के
पराक्रम की घटना प्रधान कथाओं का बाहुल्य था। इसके पश्चात छोटे आकार वाली
पंचतंत्र, हितोपदेश, बेतालपचीसी आदि जैसी साहित्यिक एवं कलात्मक कहानियों का युग
आया। इन कहानियों से श्रोताओं को मनोरंजन के साथ - साथ नीति का उपदेश भी प्राप्त
होता है। प्रायः कहानियों में असत्य पर सत्य की, अन्याय पर न्याय की और अधर्म पर
धर्म की विजय दिखाई गई है। इसतरह हम कह सकते हैं कि हमारी कहानियों में
एक सुखांत कहानियों की परम्परा चल रही थी। हिन्दी गद्य साहित्य के इतिहास में जिस गति
से कहानी का विकास हुआ उतनी गति से किसी अन्य साहित्य का विकास नहीं देखा गया सन 1900 से 1915 तक हिन्दी कहानी के विकास का पहला दौड़ था। माधवप्रसाद मिश्र का ‘मान की
चंचलता’ - 1907, किशोरीलाल गोस्वामी का ‘गुलबहार’ - 1902, गिरजादत वाजपेयी का ‘पंडित और पंडितानी’ - 1903
, आचार्य रामचंद्र शुक्ल का ‘ग्यारह वर्ष का समय’ - 1903,
बंगमहिला की ‘दुलाईवाली’ - 1907, शिव प्रसाद सितारे हिन्द
का ‘राजा भोज का सपना’, किशोरीलाल का ‘इंदुमती’ - 1900, माधव राव सप्रे का ‘एक
टोकरी भर मिट्टी’ आदि।
स्वतंत्रतापूर्व की
हिन्दी कहानी: स्वतंत्रतापूर्व की हिन्दी कहानी के वस्तु पक्ष और
शिल्प पक्ष के विकास प्रक्रिया को ध्यान में रखकर, उसे तीन भागों में बाटा गया है-
1. प्रेमचंदपूर्व युग, 2. प्रेमचंद
युग और 3. प्रेमचन्दोत्तर युग। इस काल में हिन्दी कहानी अपना स्वरूप ग्रहण
कर रही थी। उसके शिल्प विधि का विकाश हो रहा था और नए विषयों पर कहानियाँ लिखी जा
रही थी। हिन्दी की प्रारंभिक कहानियाँ इसी पत्रिका में प्रकाशित हुई थीं। सन १९०० में काशी से ‘इंदु’ नामक पत्रिका में प्रकाशन हुआ जिसमे जयशंकर
प्रसाद की कहानियाँ प्रकाशित होने लगी। इसके पश्चात राधिका रमण प्रसाद की कहानी, इलाचंद्र
जोशी एवं गंगा प्रसाद श्रीवास्तव की कहानियाँ छपने लगी। हिन्दी कहानी का विकास
लगभग १९०० ई. से प्रारंभ हुआ और धीरे-धीरे मौलिक स्वरुप एवं स्वतंत्र सत्ता विकसित
हुई। ‘उसने कहा था’ कहानी को कहानी के विकास के प्रथम सोपान की महत्वपूर्ण उपलब्धि
कहा जा सकता है। प्रेमचंद हिन्दी के युग प्रवर्तक कहानीकार माने जाते है।
प्रगतिवादी कथाकारों में यशपाल, मनोविश्लेषवादी कहानी लेखकों में अज्ञेय और इलाचंद्र जोशी आदि नाम आते है। नई कहानी विचारों के
क्षेत्र में भी नवीनता रखती है।
मन्नू भण्डारी के व्यक्तित्व और कृतित्व –
1. जन्म परिचय
2. शिक्षा और कार्यक्षेत्र
3. रचनाएँ एवं उपलब्धियाँ
4. मन्नू भण्डारी की जीवन यात्रा।
1. किसी भी साहित्यकार के कृतिओं का अध्ययन करने से पहले उनके व्यक्तित्व के
विषय में जानना जरुरी होता है। वर्तमान
नारी जगत को देखकर यह कहा जा सकता है की देश की स्वतंत्रता के साथ स्त्री
सशक्तिकरण का प्रारंभ हुआ। आज भारत में नारी प्रधानमंत्री से लेकर राष्ट्रपति के
पद तक की यात्रा कर चूकी है। इन स्थितियों को देखकर ऐसा लगता है कि आनेवाले समय
में नारी और भी अधिक सशक्त बन जाएगी। जिस प्रकर से हिन्दी साहित्य में साठोत्तरी
युग की महिला कहानीकारों ने अपनी रचनाओं
में नारी जीवन के उद्गारो को चित्रित किया है, उसी तरह वर्तमान में भी हिन्दी
साहित्य की महिला कहानीकारों ने अपनी रचनाओं के द्वारा नारी जगत की जागृति के लिए
महान योगदान दिया है। जिसमें मन्नू भण्डारी का भी महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ पर
उनके जन्म, व्यक्तित्व एवं कृतित्व को निम्नांकित रूप से देख सकते है।
जन्मतिथि: ३ अप्रैल, १९३९।
जन्म स्थान : भानपुर, जिला मंदसौर (मध्य प्रदेश)।
शिक्षा एवं कार्यक्षेत्र :
हिन्दू
विश्वविद्यालय, वाराणसी से हिन्दी में एम. ए.।
१९५२ से १९६१ तक
कलकाता के बालीगंज शिक्षा सदन।
१९६१ से १९६४ तक
कलकता के रानी बिड़ला कालेज में।
१९६४ से १९९९ तक
दिल्ली के मिरांडा हॉउस में।
१९९२ से १९९४ तक उज्जैन
के प्रेमचंद पीठ के निर्देशक के रूप में।
रचनाएँ और उपलब्धियाँ :
1. उपन्यास : 1. एक इंच मुस्कान - १९६२, (सहयोगी प्रयोगात्मक उपन्यास, राजेंद्र यादव
के साथ)। 2. आपका बंटी (१९६२) ३. महाभोज (१९७१) ४. स्वामी (२००४)।
२. कहानी संग्रह: 1. मैं हार गई 2. तीन आँखों की एक तस्वीर ३. यही सच है ४. एक
प्लेट सैलाब ५. त्रिशंकु ६. मन्नू भण्डारी: श्रेष्ठ कहानियाँ ७. प्रतिनिधि
कहानियाँ: मन्नू भंडारी ८. दस प्रतिनिधि कहानियाँ ९. मन्नू भण्डारी श्रेष्ठ
कहानियाँ १०,अकेली ११ मन्नू भंडारी की प्रेम कहानियाँ १२ मन्नू भंडारी की संपूर्ण
कहानियाँ।
३. नाटक : १. बिना दीवारों के घर - १९६६ (मौलिक नाटक ) २ महाभोज का नाट्य रूपांतर
- १९८३
४. पटकथा : १. कथा –पटकथा - २००३
५. आत्मकथा : एक कहानी यह भी (२००७ )
६. बाल साहित्य : १. आँखों देखा झूठ - कहानी-संग्रह २. आसमाता - उपन्यास ३. कलवा उपन्यास
- १९७१
७. प्रौढ़-शिक्षा के लिए:
८. नाटक तथा उपन्यासों का अनुवाद:
९, कहानिओं का अनुदित संकलन
१०. विदेशी भाषाओं में अनुवाद
११. अनुदित संकलन
१२. मंचन
१३. फीचर फिल्में
१४. टेली फिल्में
१५. कहानी के सीरियल में ली गई कहानियाँ
१६. पटकथाएँ :
१७.यात्रएं :
१८. पुरस्कार : १. उतरप्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘महाभोज’ पर सन ८०-८१ में। २.
भारतीय भाषा परिषद्, कलकता द्वारा सन ८२ में। ३ कलाकुंज सम्मान - दिल्ली (सन ८२ )।
४. भारतीय संस्कृति संसद कथा समारोह, कलकता (सन ८३ )। ५. बिहार राज्य भाषा परिषद्
(सन ९१)। ६. राजस्थान संगीत नाटक अकादमी (सन २००१-०२ )। ७. महाराष्ट्र राज्य
हिन्दी साहित्य अकादमी (सन २००४ )। ८. हिन्दी अकादमी दिल्ली द्वारा ‘शलाका सम्मान’
(सन २००६ -२००७ )। ९. मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य द्वरा ‘भवभूति अलंकरण’ (सन २००६
-२००७)।
मन्नू भंडारी की जीवन यात्रा - मन्नू भंडारी का जन्म
३ अप्रैल १९३१ को मध्यप्रदेश में मंदसौर जिले के भानपुरा ग्राम में हुआ था। मन्नू
के बचपन का नाम महेंद्र कुमारी था। उनके पिता सुखसमपत राय भंडारी साहित्य, राजनीति
और समाज-सेवा के क्षेत्र में अपने समय के बहुत ही प्रसिद्ध व्यक्ति थे। मन्नू ने एम.ए तक
की शिक्षा प्राप्त कर दिल्ली के मिरांडा हाउस में अध्यापिका रही। लेखन का संस्कार उन्हें विरासत
में मिला था। लेखन के लिए उन्होंने
अपना ‘मन्नू’ नाम का चयन किया था। मन्नू भंडारी हिन्दी की लोक प्रिय कहानीकारों
में से हैं। इनकी कहानियों में एक स्वतंत्र, न्यायप्रिय और संतुलित दृष्टि का
चौमुख रचनात्मक बोध है। प्रेम दाम्पत्य और पारिवारिक संबंधी कथानक के जरिए कथाकार
अपनी बहुमुखी सजगता का परिचय दे देती है। अपनी सादगी और अनुभूति की प्रमाणिकता के
कारण इनकी कहानियाँ विशेष रूप से प्रशंसा प्राप्त करती है। हिन्दी कहानी में नया
तेवर और नए स्वाद के साथ पांच दशक पूर्व जब मन्नू जी का पदार्पण हुआ था उसी समय इस
धरोहर को हिन्दी पाठकों ने बड़े आराम से पहचान लिया था। मन्नू भंडारी हिन्दी कहानी
के उस दौर की एक महत्वपूर्ण लेखिका है,
जिसे ‘नई कहानी आन्दोलन’ के नाम से जाना जाता है। उनकी कथा - यात्रा हिन्दी कथा
साहित्य में एक नया मोड़ लेकर आया। पारिवारिक संबंधों की गहरी होती हुई दरारें,
अन्तर्द्वन्द से उठता हुआ सैलाब, पात्रों की उठती-गिरती मानसिकता मन्नू जी के कथा
साहित्य के सबसे महत्वपूर्ण पहलू हैं। परिवार एक पवित्र तथा उपयोगी संस्था है।
इसमे मानव की सर्वांगीण उन्नति का आधार, सहयोग, सहायता और पारस्परिकता का भाव रहता
है। यह भाव वह शक्ति है जिसके आधार पर मनुष्य जंगली स्थिति से उन्नति करता-करता आज
की सभ्य स्थिति में पहुँचा है। परिवार से मिलकर समाज और समाज से मिलकर राष्ट्र का
निर्माण होता है। सामंती समाज में, सामाजिक संस्थाओं में परिवार का स्थान अत्यंत
महत्वपूर्ण है। सम्पूर्ण सामाजिक संस्थाओं में परिवार ही वह मूलभूत सामाजिक
व्यवस्था है, यह वह कड़ी है जो व्यक्ति का संबंध समाज से जोड़ता है। व्यक्ति को
सामजिक बनाने में इस परिवार का स्वरुप प्रायः संयुक्त हुआ करता था। संयुक्त परिवार
उसे कहते हैं जहाँ रक्त संबंध से जुड़े लोग सम्मिलित रूप से रहते हैं। भारतीय समाज
में व्यस्था के आरम्भ से ही संयुक्त परिवार का विशेष महत्व रहा है। लेकिन आज
संयुक्त परिवारों के स्थान पर छोटे-छोटे परिवारों में ही सुख की खोज की जा रही है। संयुक्त परिवार की
उत्पति भारत में जिस समय में हुई आज की परिस्थितियाँ उससे निश्चित ही अलग है।
कहानीकार मन्नू भंडारी की रचनाओं में स्वधीनता के शब्द भारतीय समाज में बदलते जीवन
के मूल्यों और ख़ास तौर से बदलती पारिवारिक संरचना का यथार्थबोध के स्तर पर अंकित
है। पारिवारिक यथार्थबोध को मन्नू भंडारी की कहानिओं में कई स्तर पर देखा जा सकता
है। “एखाने आकाश नाई” मन्नू भंडारी की एक उल्लेखनीय कहानी है जिसमे संयुक्त परिवार
की बदलती हुई संरचना का यथार्थबोध स्तर विधमान है। इस कहानी की एक पात्र ‘चाची’ के
माध्यम से संयुक्त परिवार की वेदना को स्पष्ट किया गया है। “जब अपना आदमी ही नहीं पूछे, तो दूसरों को क्या दोष दूँ। तुम्हारी तरह पढ़ी-
लिखी होती तो मै कमाकर खा लेती। तुम्हें तो याद होगा, तुम शादी होकर आई थी तब कैसी
दिखती थी गौरा---- अब देखो लो कैसी हो गई हो-----“ इस रचना में ग्रामीण और शहरी
परिवेश में असंतोष है। जब कथा नायिका ‘लेखा’ शहरी जीवन से उबकर सुकून की साँस लेने
गाँव आती है तो वहाँ संयुक्त परिवार के विसंगतियों से उबकर शहर की याद में खो जाती
है। “एखाने आकाश नाई” एक अन्य स्त्री पात्र सुषमा भी संयुक्त परिवार की विसंगतियों
की शिकार है क्योंकि कमाने वाली कन्या का परिवार इसलिए उसकी विवाह नहीं करता कि
उसके चले जाने के बाद माता- पिता की कमाई बंद हो जाएगी। यह बिल्कुल नया पारिवारिक
यथार्थबोध है। “छत बनानेवाले” शीर्षक कहानी में संयुक्त परिवार की दो स्थितियों पर
संतुलित प्रकाश डाला गया है। कहानी में परिवार का एक हिस्सा गाँव में रहता है तो
दूसरा शहर में। मन्नू भंडारी ने “छत बनानेवाले” कहानी में गहराई के साथ यह चित्रित
किया है कि परिवार के किसी भी सदस्य को सामंती सामूहिक नैतिकता के विरुद्ध आचरण
करने का कोई अधिकार नहीं है। “मज़बूरी” कहानी में मन्नू भंडारी ने दो पीढ़ियों के
वैचारिकी अंतराल से उत्पन्न हुई पारिवारिक समस्याओं को दर्शाया है। इस कहानी में
माँ-बाप और बच्चों के बीच की दूरी के बारे में दिखाया गया है। “सयानी बूआ” नामक
कहानी में तत्कालीन समाज के यथार्थ को उजागर करता है। अनुशासन की बहुलता किस
प्रकार की स्थिति पैदा कर सकता है यह मन्नू भंडारी की “सयानी बुआ” नामक कहानी में
विशेष रूप से उभारा है। आजाद भारत की परिवार व्यवस्था के संदर्भ में “सजा” मन्नू
भंडारी की प्रारम्भिक कहानी है। यह कहानी एक संयुक्त परिवार की अवधारणा की टूटने
से संबंधित है। “सजा” कहानी में एक ओर न्याय में विलंब होने पर मार्मिक व्यंग्य है
तो दूसरी ओर आर्थिक अभाव के कारण परिवार में आनेवाले बिखराव का मर्मस्पर्शी चित्रण
है। इस कहानी में मन्नू जी ने मध्यवर्गीय परिवार में पैसों की कमी से उत्पन्न हुए
आर्थिक स्थितियों के कारण परिवार विघटित होने की यथार्थता, समाज और न्यायलय में
होने वाले अन्याय आरोपण के द्वरा एक मध्यवर्गीय निर्दोष परिवार के माध्यम से
यथार्थबोध का सुंदर चित्रण किया है। मन्नू भंडारी की अधिकांश
कहानियाँ किसी न किसी संदर्भ में पारिवारिक संबंधो के यथार्थ से जुडी है। परन्तु
“दीवार बच्चे और बरसात”, “नकली हीरे”, “नई नौकरी”, “बंद दरवाजों का साथ”, “उचाई”,
“दरार भरने की दरार”, “शायद”, “रेत की दीवार”, “तीसरा हिस्सा”, “एखाने आकाश नाई”,
कहानियाँ और “एक इंच आकाश” तथा “आपका बंटी” उपन्यास आदि में विस्तृत रूप से
पारिवारिक घुटन और त्रासदी को स्पष्ट करने वाली रचनाएँ है। मन्नू भंडारी का जिक्र
हो और “आपका बंटी” उपन्यास की बात नहीं हो यह संभव नही, ये उनकी कालजयी रचना है,
इस उपन्यास में मन्नू जी ने विवाह विच्छेद की त्रासदी में पिस रहे एक बच्चे को
केन्द्र में रखकर कहानी बुनी है। बाल मनोविज्ञान की गहरी समझ बूझ के लिए चर्चित और
प्रशंसित इस उपन्यास का हर पृष्ठ मर्मस्पर्शी और विचारोत्तेजक है। हिन्दी कथा साहित्य
में मन्नू की ये अनमोल भेट है। “यथार्थ का तात्पर्य है, जो वस्तु अथवा घटना जैसी
घटी है, उसका वैसे ही वर्णन करना। मनुष्य का जीवन अच्छाई और बुराई दोनों से
परिपूर्ण होता है। मानव- जीवनशक्ति तथा दुर्बलता, लघुता तथा महता, कुरूपता तथा सुरूपता
का समन्वय है। इन सभी का मिला - जुला रूप का वर्णन ही यथार्थ के अंतर्गत आता है।”
उपसंहार- स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात स्त्रियों
की स्थिति शिक्षा के प्रचार- प्रसार में काफी हद तक बदल गई है। मन्नू जी ने भी
स्नाकोतर की उपाधि प्राप्त कर अपने आपको समृद्ध बनाया। मन्नू जी ने भी अध्ययन
के पश्चात् नौकरी की शुरुआत की पहले विधालय फिर महाविश्वविधालय में। मन्नू जी ने
अपने पिता की रजामंदी के विरुद्ध अपनी मर्जी से राजेन्द्र यादव जी के साथ विवाह
किया और अपनी स्त्री शक्ति लगाकर इस विवाह को अटूट बंधन में बांधे रखा। मन्नू जी
ने यह सिद्ध कर दिया कि वे आधुनिक भारतीय नारी की प्रतीक हैं। महिला लेखन की
परम्परा की शुरुआत जिन लेखिकाओं ने की मन्नू भंडारी उनमे से एक प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उन्होंने स्त्री जीवन
के हर पहलू को अपनी कहानिओं और उपन्यासों में दर्शाया है। विवाह योग्य कन्या से
लेकर नौकरी पेशा स्त्री के संघर्ष, युवा माता की समस्याएँ, परित्यकता स्त्री की
समस्यायें, तलाकशुदा स्त्री का जीवन, ये सब अनायास ही मन्नू जी के कथा संसार का
अंग बनते चले गए तथा उनकी कहानी और उपन्यास में इनके आकार जीवन्त हो उठे। मन्नू जी
की सहजता, विशिष्टता और स्वाभाविकता ही उन्हें विशिष्ट बनाती है।
सन्दर्भ ग्रंथ :
1.
डा. वासुदेव नन्दन प्रसाद
2.
सुधा अरोड़ा
3.
मंजू कुमारी
4.
सी.एच. चारुमती देवी
5.
प्रो. गोपेश्वर सिंह
6.
हिन्दी कुंज.कॉम