Sunday 4 March 2018

रामकृष्ण परमहंस




भारत एक विशाल देश है। इस देश में अनेक भाषा भाषी, संस्कृति तथा जाति के लोग रहते हैं। यहाँ प्रकृति ने प्राणियों के लिए अनेक सुख सुविधाएँ प्रदान की है। हमारे देश की धरती पर अनेक संतों, कवियों, लेखकों, वज्ञानिकों, सैनिकों तथा ऋषि मुनिओं का जन्म हुआ है। कोलकाता शहर में एक संत रामकृष्ण का जन्म 18 फरवरी 1836 को कामारपुकुर के एक निर्धन ब्राह्मण  परिवार में हुआ था। रामकृष्ण परमहंस भारत के एक महान संत और विचारक थे। वे सभी धर्मों का सम्मान करते थे। वे मानवता के पुजारी थे। रामकृष्ण के बचपन का नाम गदाधर था। ज्योतिषियों ने बालक रामकृष्ण के महान होने की भविष्यवाणी की थी। ज्योतिषियों की भविष्वाणी सुनकर माता चंद्रमणि देवी तथा पिता खुदिराम अत्यंत प्रसन्न हुए थे । पांच वर्ष की अवस्था में ही वे अपने अद्भूत प्रतिभा और स्मरण शक्ति का परिचय देने लगे थे। उन्हें अपने पूर्वजों के नाम, देवी-देवतावों की प्रार्थनायें, रामायण और महाभारत की कथाएं कंठस्थ हो गई थी।

परिवार­

 सन् 1843 ई० में इनके पिता का देहांत हो गया। परिवार का पूरा भार उनके बड़े भाई रामकुमार पर आ गया। रामकृष्ण जब नौ वर्ष के हुए तो उनके यज्ञोपवित संस्कार की बात चलने लगी थी। इस संस्कार की एक प्रथा होती है - यज्ञोपवित के पश्चात् अपने किसी नजदीकि सम्बन्धी या किसी ब्राह्मण से भिक्षा प्राप्त करनी होती है। किन्तु रामकृष्ण ने एक लोहारिन से भिक्षा प्राप्त किया था। वो लुहारिन रामकृष्ण को बचपन से जानती थी। उसने रामकृष्ण से प्रार्थना की थी कि वह प्रथम बार की भिक्षा उससे ही प्राप्त करें। लुहारिन के सच्चे प्रेम से प्रेरित होकर बालक रामकृष्ण ने उसे बचन दे दिया था। अतः यज्ञोपवित के पश्चात् घरवालो के विरोध के बावजूद भी रामकृष्ण ने इस पुराने समय से चली आ रही प्रचलित प्रथा का उलंघन कर अपना वचन पूरा किया और पहली भिक्षा उस लुहारिन से ही प्राप्त की। रामकृष्ण का मन पढाई में नहीं लगता था लेकिन उनमे एक विलक्षण प्रतिभा थी। वे रामायण, महाभारत, गीता आदि के श्लोक को एक बार मे सुनकर याद कर लेते थे। उनके गाँव की जो अतिथि शाला थी उसमे साधु-संत ठहरते थे। उनके साथ बैठकर उनकी चर्चाओ को रामकृष्ण ध्यानपूर्वक सुनते थे तथा उनकी सेवा करते थे। इसमे उन्हें विशेष आनंद आता था। वे संगीत प्रेमी भी थे। भक्तिपूर्ण गानों के प्रति उनकी विशेष अभिरुचि थी। एक बार की बात है कि रामकृष्ण अपने पास के गाँव जा रहे थे तभी उन्होंने आकाश में काले बादलों के बीच सफेद रंग के बगुलों को पंक्ति में उड़ते देखा और उसे देखते ही रामकृष्ण संज्ञा शून्य हो गए। वास्तव में वह भाव समाधि थी।

     पिता के मृत्यु के पश्चात रामकृष्ण अपने बड़े भाई के साथ कोलकाता आ गए। उनके बड़े भाई को दक्षिणेश्वर  काली  मंदिर  के  मुख्य  पुजारी  के  रूप  में  नियुक्त  किया गया था। रामकृष्ण और उनके भांजे हृद्य दोनों रामकुमार की सहायता करते थे। रामकृष्ण को देवी की प्रतिमा को सजाने का काम मिला था। 1856 में रामकुमार की मृत्यु के पश्चात्, रामकृष्ण को काली मंदिर में पुरोहित के रूप में नियुक्त किया गया। रामकृष्ण अपने बड़े भाई की मृत्यु के पश्चात् काली माता में अधिक ध्यान मग्न रहने लगे। कहा जाता है कि श्री रामकृष्ण को काली माता का दर्शन ब्रह्माण्ड के रूप में हुआ था। यह भी कहा जाता है कि श्री रामकृष्ण माँ काली को अपने हाथों से खाना खिलाते थे तथा उनसे बातें करते थे और खुद नाचने – गाने  लगते थे। जैसे ही काली माँ से सम्पर्क छुटता था, वे एक अबोध बालक की तरह रोने लगते थे।

     मै जब छठी कक्षा में पढ़ती थी तब मेरी एक शिक्षिका जो कोलकाता की रहने वाली थी, हमें बहुत कुछ श्री रामकृष्ण के विषय में, इस तरह की बातें बताया करती थीं। उस समय मेरे मन में एक प्रश्न उठता था कि क्या भागवान से मनुष्य सच में बातें कर सकता है ?

 श्री रामकृष्ण के भक्ति के चर्चे धीरे-धीरे फैलने लगे। अफवाह यहाँ तक फैल गई कि अध्यात्मिक ‘साधनों’ के कारण रामकृष्ण का मानसिक संतुलन बिगड़ गया है। यह सब देखकर रामकृष्ण की माता ने उनको विवाह के बंधन में बांधने का निर्णय लिया। उनका विवाह ‘जयरामबाटी’ गांव के रामचंद्र मुखर्जी की पांच वर्षीय पुत्री शारदा देवी से 1859 में संपन्न हो गया। उस समय रामकृष्ण की उम्र तेईस वर्ष की थी। विवाह के पश्चात् शारदा देवी अपने गाँव में ही रहती थीं। 18 वर्ष की उम्र होने के पश्चात् वे रामकृष्ण के पास दक्षिणेश्वर में आकर रहने लगीं। रामकृष्ण जी अपनी पत्नी को माता के रुप में देखते थे। शारदा माँ भी अपने पति को ईश्वर मान कर उनके सुख में अपना सुख देखने लगी और जीवन साथी बनकर हमेशा उनकी सेवा करती रहीं।

       रामकृष्ण के जीवन में अनेक गुरु आए लेकिन अंतिम गुरुओं का प्रभाव उनके जीवन पर गहरा पड़ा। उनकी एक गुरु ‘माँ भैरवी’ थी जिन्होंने उन्हें कापालिक तंत्र की साधना करायी। रामकृष्ण के अंतिम गुरु ‘श्री तोतापूरी’ थे। ‘श्री तोतापूरी’ सिद्ध योगी, तांत्रिक तथा हठयोगी थे। तोतापुरी ने जब रामकृष्ण को कहा कि मैं तुम्हें अगली मार्ग तक पंहुचा सकता हूँ और उन्होंने रामकृष्ण से कहा कि मैं तुम्हें वेदांत की शिक्षा दूंगा, तो रामकृष्ण ने सरल भाव से कहा, ‘माँ से पूछ लूँगा तब’। रामकृष्ण के इस सरल भाव से ‘तोतापुरी’ मुग्ध हो गए और मुस्कुराने लगे। बाद में माँ ने अनुमति दे दी यह कहकर रामकृष्ण ने नम्रतापूर्वक गुरु तोताराम के चरणों में पूर्ण विश्वाश के साथ आत्मसमर्पण कर दिया और रामकृष्ण समाधि की अंतिम मंजिल तक पहुँच गए। उनकी आत्मा परम सत्ता में विलिन हो गई और उन्होंने ब्राह्म ज्ञान को प्राप्त कर लिया।

     सन्यास ग्रहण करने के पश्चात् उनका नया नाम रामकृष्ण परमहंस पड़ा। हिंदू धर्म में परमहंस की उपाधि उसे दी जाती है जो सभी प्रकार की सिद्धियों से युक्त हो। इसके बाद परमहंस जी ने कई धर्मो की साधना की। समय जैसे-जैसे बिताने लगा, वैसे- वैसे उनकी सिद्धियों के समाचार तेजी से फैलने लगे। बड़े-बड़े विद्वान प्रसिद्ध वैष्णव और तांत्रिक उनसे अध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त करते रहे। उनके कई शिष्य थे - केशवचन्द सेन, विजयचन्द गोस्वामी, ईश्वरचन्द विद्यासागर आदि, परन्तु स्वामी विवेकानंद उनके परम शिष्य थे। उनके शिष्य उन्हें ‘ठाकुर’ कह कर सम्बोधित करते थे। उनके सहृदयता और मानवतावादी विचार का एक उदाहरण इस घटना में दिखाई देता है – विवेकानंदजी एक बार उनके पास हिमालय में तपस्या के लिए जाने की अनुमति लेने गए तो परमहंस जी ने उन्हें समझाया कि यहाँ हमारे आस-पास लोग भूख और बीमारी से तड़प रहे हैं, चारों ओर अज्ञानता का अँधेरा छाया हुआ है और तुम हिमालय कि गुफा में समाधि लगाओगे ? क्या तुम्हारी आत्मा इसे स्वीकार करेगी ? गुरु की इन बातों को सुनकर गुरु भक्त विवेकानंद जी दिन-दुखियों की सेवा में लग गए। परमहंस जी के मानवतावादी विचारधारा का ये सबसे बड़ा उदाहरण है।

     रामकृष्ण संसार को माया के रूप में देखते थे। उनके अनुसार काम, लोभ, क्रूरता, स्वार्थ आदि मनुष्य को निचले स्तर तक ले जाता है। निःस्वार्थ कर्म, अध्यात्मिकता, दया, पवित्रता, प्रेम और भक्ति मनुष्य को जीवन के उच्च स्तर तक ले जाती है। रामकृष्ण परमहंस जीवन के अंतिम दिनों में समाधि की स्थिति में रहने लगे थे। शरीर शिथिल पड़ने लगा था। जब उन्हें कोई आत्मियता के साथ स्वास्थ्य पर ध्यान देने का निवेदन करता, तो वे सिर्फ़ मुस्कुरा कर रह जाते थे। अंत में वह दु:खद घड़ी भी आ गई तथा 15 अगस्त 1886 की रात में वे समाधि में लीन हो गये। माना जाता है कि अंतिम दिनों में वे गले की बीमारी से काफी परेशान थे। इसप्रकार फिर से एक महान संत सदा सदा के लिए इस शरीर को त्याग कर परमसत्ता में विलिन हो गए और छोड़ गए अपने पीछे बहुत सारी कहानियां जिससे हमें बहुत कुछ सिखना है।

राष्ट्र निर्माण में युवाओं की भूमिका


आज मुझे राहुल सांस्कृत्यायन की एक पंक्ति याद आ रही है- “भागो नहीं दुनिया को बदलो” ‘ऐ मेरे देश के युवाओं जड़ता तोड़ो आगे आओ, संगठित होकर कदम बढाओ, फिर से मुक्ति मशाल जलाओ । भारत एक विकासशील और विशाल जनसंख्या वाला देश है । संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत सबसे बड़ी युवा जनसंख्या वाला देश है । राष्ट्र के निर्माण में युवा वर्ग का बहुत महत्व है । ये हमारे देश के आन, बान, शान के साथ-साथ देश का भविष्य भी हैं । राष्ट्र की सुरक्षा के लिए हजारों लाखों व्यक्तियों ने कुर्बानियाँ दी है। राष्ट्र निर्माण के लिए हमारी नई पीढ़ी को तैयार करने का सबसे पहला कर्तव्य परिवार का है, परिवार ही बच्चों की पहली पाठशाला और माँ उनकी प्रथम शिक्षिका होती है । परिवार ही बच्चों को सर्वगुण संपन्न बना सकता है । बच्चा संघर्ष करना पिता से और संस्कार माँ से सीखता है, बाकी सब कुछ उसे दुनिया सीखा देती है । स्वामी विवेकानंद जी ने अपने अमेरिका प्रवास के दौरान कहा था कि किसी भी देश का भविष्य उस देश की युवा शक्ति के ऊपर निर्भर करता है
युवा किसे कहते हैं - “जो वायु की गति से तेज चलने वाला हो, जिसकी सोंच सकारात्मक हो, जो हमेशा यह सोंचे की उसे कुछ नया करना है जिसका जीवन उत्साह से भरा हो और हर सुबह एक नये विचार से दिन का आरम्भ करने वाले को युवा कह सकते हैं। कोई भी देश युवा शक्ति के बिना मजबूत नहीं हो सकता है और न ही आगे बढ़ सकता है । अतः हमारी युवा पीढ़ी ही देश को महाशक्तिशाली बना सकती है । आज हमारे युवा वर्ग में कुछ स्वार्थी तत्व भी हैं जो सिर्फ अपने बारे में ही सोचते हैं और मुक्य धारा से भटक रहे हैं। ये बात सभी युवाओं के विषय में नहीं कहा जा सकता है । हमारे देश में कर्मठ युवाओं की कमी नहीं है । वे सब आज भी अपने परिवार, समाज, और देश की सिर्फ चिंता ही नहीं करते बल्कि उसके विकाश और समृधि के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहते हैं । यहाँ एक प्रश्न ये भी उठता है कि हमारे ‘युवा’ देश के लिए वरदान हैं या चुनौती ? अगर युवाओं का कदम सही दिशा में हो तो वे किसी भी चुनौती का हल बहुत आसानी से निकाल सकते हैं और अगर गलती से भी उनका कदम भटक गया तो शायद इन्हें रोकना बहुत ही मुश्किल हो सकता है । कुछ भ्रमित युवा आजकल मनमानी करने लगे हैं । यह चिंता का विषय है । वे दिशाहीन और अनुशासनहीन हो रहे हैं । आज से कुछ दशक पहले तक युवा वर्ग अपर्याप्त साधन और सुविधाओं के बावजूद भी अपने कर्तव्य से विमुख नहीं हुए । भारत को आजादी दिलाने में मुख्य भूमिका युवा वर्ग का ही था । भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस, चंद्राशेखर आजाद, खुदिराम बोस आदि को कौन नहीं जानता । बहुत से स्वतंत्रता सेनानी और युवा लेखकों ने देश के नाम पर अपने आप को समर्पित कर दिया । विधार्थी के रूप में भी उनका मानना था कि- “सुखार्थिन कुतो विद्या, आ विद्यार्थिन कुतो सुखं” अर्थात सुख विकाश में बाधक है ।
राष्ट्र निर्माण एक ऐसी परिकल्पना है जिसमें राष्ट्र से जुड़े हुए हरेक पहलू का ध्यान रखना अति आवश्यक है । कुछ लोगों का मानना है कि राजनीति में आकार ही राष्ट्र का निर्माण किया जा सकता है लेकिन ये सच नहीं है । राष्ट्र निर्माण के कई पहलू हैं । देश के विकाश एवं राष्ट्र निर्माण के लिए शिक्षा, कृषि, उधोग-धंधे और सैन्य क्षमता सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं । प्रगति के कार्यों में सबको युवाओं का साथ देना होगा, उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करना होगा । तभी ‘सबका साथ, सबका विकाश हो’ सकता है ।
आधुनिक भारत के नव युवक सन्यासी ‘स्वामी विवेकानंद’ के जन्म दिवस को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है । आइए हम सब मिलकर इसे एक यादगार दिन बनाएं । किसी ने सच ही कहा है- ज़िदगी की असली उडान बाकी है, अभी तो कई इम्तिहान बाकी है । नापी है मुट्ठी भर ज़मीन हमने, अभी तो सारा आसमान बाकी है ।

                * जय हिन्द ! जय भारत ! *

Sunday 10 December 2017

मन्नू भण्डारी की कहानियों में यथार्थ बोध


विषयाअनुक्रमिका अध्याय:
1. कहानी की विधाएँ
2. कहानी के तत्व
३. कहानी की परिभाषा
४. कहानी का उदभव और विकास
५. मन्नू मन्नू भंडारी के व्यक्तित्व और कृतित्व
६. रचनाएँ और उपलब्धियाँ
७. मन्नू भंडारी की जीवन यात्रा
८. उपसंहार                   
हिन्दी साहित्य की विधाएँ: हिन्दी साहित्य की मुख्य तीन विधाएँ हैं –
1. काव्य
2. गद्द
3. चम्पू काव्य।

गद्द साहित्य के अंतर्गत – कहानी, जीवनी, आत्मकथा, नाटक, एकांकी, निबंध आदि अनेक विधाएँ हैं। गद्द की सभी विधाओं में कहानी की विधा सबसे पुरानी मानी जाती है। कहानी का आरम्भ कब और कहाँ हुआ यह बताना कठिन है। पुराणों और इतिहासों में भी कहानियाँ दिखाई पड़ती हैं जैसे – ईसॉप कथाएं, पंचतंत्र कथाएँ, जातक कथाएँ आदि जो आज के समय में भी बहुत मशहूर हैं। यहाँ हम कह सकते है – ‘old is gold अथार्त सोने की चमक कभी भी काम नहीं होती। यह निर्विवाद सत्य है कि मानव के मन को प्रभावित करने के लिए कहानी में अद्भूत क्षमता होती है। पहले कहानी का उद्देश्य उपदेश देना और मनोरंजन करना माना जाता था लेकिन आज कहानियों का मुख्य उद्देश्य मानव जीवन की विविध प्रकार की समस्याओं और संवेदनाओं को आम जनता तक पहुंचाना है यही कारण है कि प्राचीन कहानियों से आधुनिक हिन्दी कहानियाँ बिल्कुल ही अलग है।

कहानी के तत्व – साधारणतया कहानी के छ: तत्व माने गए है –
1. कथावस्तु
2. चरित्र- चित्रण      
3. संवाद
4. देशकाल या वातावरण
5. उद्देश्य और
6. शैली।
1. कथावस्तु – कथावस्तु कहानी का प्रमुख अंग है। कथावस्तु के बिना कहानी की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। कथावस्तु जीवन की अनेक दिशाओं और क्षेत्रों से लिया जाता है जैसे – पुराण, इतिहास, समाज, राजनीतिक आदि। इनमे से किसी भी विषय को चुनकर कथानक अपनी महल खड़ी कर सकता है।
2. चरित्र-चित्रण- चरित्र- चित्रण के अंतर्गत कहानी जिस व्यक्ति की होती है वही उस कहानी का चरित्र कहलाता है। लेकिन कहानियों में चरित्रों की संख्या काम होनी चाहिए। तभी कहानीकार किसी चरित्र को अन्दर और बाहर दोनों पक्षों का अधिक से अधिक विश्लेषण कर सकता है।        
3. संवाद – पहले संवाद कहानी का अभिन्न अंग माना जाता था अब इसकी अनिवार्यता समाप्त हो गई है। आज ऐसी अनेकानेक कहानियाँ लिखीं गई है या लिखी जा रहीं है जिसमे संवाद का एकदम अभाव रहता है। सारी कहानियाँ वर्णात्मक या मनोविश्लेषनात्मक शैली में लिख दी जाती है। इसलिये संवाद की कही भी आवश्यकता नहीं पड़ती है। लेकिन संवाद से कहानी के पात्र सजीव और स्वभाविक बन जाते है और कथा-वस्तु सम्वाद के माध्यम से पाठकों को बांधे रखती है।
4. देशकाल – कहानी देश काल की उपज होती है। इसलिए हर देश की कहानी एक दुसरे से अलग होती है। भारत या किसी भी भू-भाग की लिखी कहानियों का अपना वातावरण होता है जिसकी संस्कृति, सभ्यता, रूढ़ि संस्कार का प्रभाव उसपर स्वभाविक रूप से पड़ता है।
5. उद्देश्य - उद्देश्य कहानी का एक तत्व माना जाता है क्योंकि सच तो यह है कि किसी भी विधा की रचना निरुद्देश्य नहीं होता है। हर कहानी के पीछे कहानीकार का कोई न कोई प्रयोजन जरुर होता है। यह उद्देश्य कहानी के आवरण में छिपा होता है।
6. शैली- शैली कहानी के कलेवर को सुसज्जित करनेवाला कलात्मक आवरण होता है। इसका सम्बंध कहानीकार के आतंरिक और बाहरी पक्षों से रहता है। कहानीकार की शैली ऐसी हो जो पाठकों को अपनी ओर आकर्षित कर सके। यह काम भाषा शक्ति के द्वारा होता है। कहानीकार की भाषा में इतनी शक्ति होनी चाहिए कि वह पाठक को अपनी मोह पाश में बांध दे। अत: हम कह सकते हैं कि कहानी रचना एक कलात्मक विधान है जो अभ्यास और प्रतिभा के द्वारा ही रूप ग्रहण करती है।
कहानी की परिभाषा- युग प्रवर्तक साहित्यकार प्रेमचंद की राय में कहानी गमले का फूल है। ‘कहानी वह ध्रुपद की तान है, जिसमें गायक महफिल शुरु होते ही अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा दिखा देता है। एक क्षण में चित्त को इतने माधुर्य से परिपूर्ण कर देता है कि जितना रात भर गाना सुनने से भी नहीं हो सकता है।’ डा. श्रीपति शर्मा राय के शब्दों में ‘कहानी वह रचना है जिसमें जीवन के किसी एक अंग या किसी एक मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य होता है। ‘अज्ञेय ने कहानी को एक सूक्ष्म दर्शी यन्त्र कहा है।’ डा. गणपति गुप्त ने ठीक ही कहा है कि प्राचीन कहानियाँ स्वर्ग लोक की कल्पना थी, तो आधुनिक कहानी हमें धरती के सुख-दु:ख का सस्मरण कराती है।’ वैसे तो कहानी की और भी अनेक परिभाषाएं दी जा सकती है पर किसी भी साहित्यिक विधा को वैज्ञानिक परिभाषा में नहीं बांधा जा सकता है। साहित्य में विज्ञान की सुनिश्चितता नहीं होती, इसलिए उसकी जो भी परिभाषा दी जाएगी वह अधूरी है।
हिन्दी कहानी का उद्दभव और विकाश - 19 वी. शदी के गद्य में एक नई विधा का विकास हुआ जिसे कहानी के नाम से जाना जाता है। बंगला में इसे ‘गल्प’ कहा गया है कहानी ने अंग्रेजी से हिन्दी तक का सफर बंगला के माध्यम से शुरु किया। गद्य साहित्य में कहानी एक अत्यंत ही लोकप्रिय विधा है। मनुष्य के जन्म के साथ-साथ कहानी का भी जन्म हुआ। हमारे देश में कहानियों की बहुत ही बड़ी और संपन्न परम्परा रही है। वेदों, उपनिषदों तथा ब्रह्मणों में वर्णित ‘यम-यमी, नहुष, ययाति, शकुन्तला, नल- दमयंती जैसे आख्यान कहानी के ही प्राचीन रूप है। प्राचीन काल में सदियों तक प्रचलित वीरों तथा राजाओं के शौर्य, प्रेम, न्याय, ज्ञान, साहस, डर, समुद्रीयात्रा, राजकुमार तथा राजकुमारियों के पराक्रम की घटना प्रधान कथाओं का बाहुल्य था। इसके पश्चात छोटे आकार वाली पंचतंत्र, हितोपदेश, बेतालपचीसी आदि जैसी साहित्यिक एवं कलात्मक कहानियों का युग आया। इन कहानियों से श्रोताओं को मनोरंजन के साथ - साथ नीति का उपदेश भी प्राप्त होता है। प्रायः कहानियों में असत्य पर सत्य की, अन्याय पर न्याय की और अधर्म पर धर्म की विजय दिखाई गई है। इसतरह हम कह सकते हैं कि हमारी कहानियों में एक सुखांत कहानियों की परम्परा चल रही थी। हिन्दी गद्य साहित्य के इतिहास में जिस गति से कहानी का विकास हुआ उतनी गति से किसी अन्य साहित्य का विकास नहीं देखा गया सन 1900  से 1915 तक हिन्दी कहानी के विकास का पहला दौड़ था। माधवप्रसाद मिश्र का ‘मान की चंचलता’ - 1907, किशोरीलाल गोस्वामी का ‘गुलबहार’ - 1902, गिरजादत वाजपेयी का ‘पंडित और पंडितानी’ - 1903 , आचार्य रामचंद्र शुक्ल का ‘ग्यारह वर्ष का समय’ - 1903, बंगमहिला की ‘दुलाईवाली’ - 1907, शिव प्रसाद सितारे हिन्द का ‘राजा भोज का सपना’, किशोरीलाल का ‘इंदुमती’ - 1900, माधव राव सप्रे का ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ आदि।    
स्वतंत्रतापूर्व की हिन्दी कहानी: स्वतंत्रतापूर्व की हिन्दी कहानी के वस्तु पक्ष और शिल्प पक्ष के विकास प्रक्रिया को ध्यान में रखकर, उसे तीन भागों में बाटा गया है-      1. प्रेमचंदपूर्व युग, 2. प्रेमचंद युग और 3. प्रेमचन्दोत्तर युग। इस काल में हिन्दी कहानी अपना स्वरूप ग्रहण कर रही थी। उसके शिल्प विधि का विकाश हो रहा था और नए विषयों पर कहानियाँ लिखी जा रही थी। हिन्दी की प्रारंभिक कहानियाँ इसी पत्रिका में प्रकाशित हुई थीं। सन १९०० में काशी से ‘इंदु’ नामक पत्रिका में प्रकाशन हुआ जिसमे जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ प्रकाशित होने लगी। इसके पश्चात राधिका रमण प्रसाद की कहानी, इलाचंद्र जोशी एवं गंगा प्रसाद श्रीवास्तव की कहानियाँ छपने लगी। हिन्दी कहानी का विकास लगभग १९०० ई. से प्रारंभ हुआ और धीरे-धीरे मौलिक स्वरुप एवं स्वतंत्र सत्ता विकसित हुई। ‘उसने कहा था’ कहानी को कहानी के विकास के प्रथम सोपान की महत्वपूर्ण उपलब्धि कहा जा सकता है। प्रेमचंद हिन्दी के युग प्रवर्तक कहानीकार माने जाते है। प्रगतिवादी कथाकारों में यशपाल, मनोविश्लेषवादी कहानी लेखकों में अज्ञेय और इलाचंद्र जोशी आदि नाम आते है। नई कहानी विचारों के क्षेत्र में भी नवीनता रखती है।
मन्नू भण्डारी के व्यक्तित्व और कृतित्व –
1. जन्म परिचय
2. शिक्षा और कार्यक्षेत्र
3. रचनाएँ एवं उपलब्धियाँ
4. मन्नू भण्डारी की जीवन यात्रा।

1. किसी भी साहित्यकार के कृतिओं का अध्ययन करने से पहले उनके व्यक्तित्व के विषय में जानना जरुरी होता है। वर्तमान नारी जगत को देखकर यह कहा जा सकता है की देश की स्वतंत्रता के साथ स्त्री सशक्तिकरण का प्रारंभ हुआ। आज भारत में नारी प्रधानमंत्री से लेकर राष्ट्रपति के पद तक की यात्रा कर चूकी है। इन स्थितियों को देखकर ऐसा लगता है कि आनेवाले समय में नारी और भी अधिक सशक्त बन जाएगी। जिस प्रकर से हिन्दी साहित्य में साठोत्तरी युग  की महिला कहानीकारों ने अपनी रचनाओं में नारी जीवन के उद्गारो को चित्रित किया है, उसी तरह वर्तमान में भी हिन्दी साहित्य की महिला कहानीकारों ने अपनी रचनाओं के द्वारा नारी जगत की जागृति के लिए महान योगदान दिया है। जिसमें मन्नू भण्डारी का भी महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ पर उनके जन्म, व्यक्तित्व एवं कृतित्व को निम्नांकित रूप से देख सकते है।
जन्मतिथि: ३ अप्रैल, १९३९।
जन्म स्थान : भानपुर, जिला  मंदसौर (मध्य प्रदेश)।
शिक्षा एवं कार्यक्षेत्र :
हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से हिन्दी में एम. ए.।
१९५२ से १९६१ तक कलकाता के बालीगंज शिक्षा सदन।
१९६१ से १९६४ तक कलकता के रानी बिड़ला कालेज में।
१९६४ से १९९९ तक दिल्ली के मिरांडा हॉउस में।
१९९२ से १९९४ तक उज्जैन के प्रेमचंद पीठ के निर्देशक के रूप में।

रचनाएँ और उपलब्धियाँ :
1. उपन्यास : 1. एक इंच मुस्कान - १९६२, (सहयोगी प्रयोगात्मक उपन्यास, राजेंद्र यादव के साथ)। 2. आपका बंटी (१९६२) ३. महाभोज (१९७१) ४. स्वामी (२००४)।
२. कहानी संग्रह: 1. मैं हार गई 2. तीन आँखों की एक तस्वीर ३. यही सच है ४. एक प्लेट सैलाब ५. त्रिशंकु ६. मन्नू भण्डारी: श्रेष्ठ कहानियाँ ७. प्रतिनिधि कहानियाँ: मन्नू भंडारी ८. दस प्रतिनिधि कहानियाँ ९. मन्नू भण्डारी श्रेष्ठ कहानियाँ १०,अकेली ११ मन्नू भंडारी की प्रेम कहानियाँ १२ मन्नू भंडारी की संपूर्ण कहानियाँ।
३. नाटक : १. बिना दीवारों के घर - १९६६ (मौलिक नाटक ) २ महाभोज का नाट्य रूपांतर - १९८३ 
४. पटकथा : १. कथा –पटकथा - २००३
५. आत्मकथा : एक कहानी यह भी (२००७ )
६. बाल साहित्य : १. आँखों देखा झूठ - कहानी-संग्रह २. आसमाता - उपन्यास ३. कलवा उपन्यास - १९७१
७. प्रौढ़-शिक्षा के लिए:
८. नाटक तथा उपन्यासों का अनुवाद:
९, कहानिओं का अनुदित संकलन
१०. विदेशी भाषाओं में अनुवाद  
११. अनुदित संकलन
१२. मंचन
१३. फीचर फिल्में
१४. टेली फिल्में
१५. कहानी के सीरियल में ली गई कहानियाँ
१६. पटकथाएँ :
१७.यात्रएं :

१८. पुरस्कार : १. उतरप्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘महाभोज’ पर सन ८०-८१ में। २. भारतीय भाषा परिषद्, कलकता द्वारा सन ८२ में। ३ कलाकुंज सम्मान - दिल्ली (सन ८२ )। ४. भारतीय संस्कृति संसद कथा समारोह, कलकता (सन ८३ )। ५. बिहार राज्य भाषा परिषद् (सन ९१)। ६. राजस्थान संगीत नाटक अकादमी (सन २००१-०२ )। ७. महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी (सन २००४ )। ८. हिन्दी अकादमी दिल्ली द्वारा ‘शलाका सम्मान’ (सन २००६ -२००७ )। ९. मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य द्वरा ‘भवभूति अलंकरण’ (सन २००६ -२००७)।

मन्नू भंडारी की जीवन यात्रा - मन्नू भंडारी का जन्म ३ अप्रैल १९३१ को मध्यप्रदेश में मंदसौर जिले के भानपुरा ग्राम में हुआ था। मन्नू के बचपन का नाम महेंद्र कुमारी था। उनके पिता सुखसमपत राय भंडारी साहित्य, राजनीति और समाज-सेवा के क्षेत्र में अपने समय के बहुत ही प्रसिद्ध व्यक्ति थे। मन्नू ने एम.ए तक की शिक्षा प्राप्त कर दिल्ली के मिरांडा हाउस में अध्यापिका रही। लेखन का संस्कार उन्हें विरासत में मिला था। लेखन के लिए उन्होंने अपना ‘मन्नू’ नाम का चयन किया था। मन्नू भंडारी हिन्दी की लोक प्रिय कहानीकारों में से हैं। इनकी कहानियों में एक स्वतंत्र, न्यायप्रिय और संतुलित दृष्टि का चौमुख रचनात्मक बोध है। प्रेम दाम्पत्य और पारिवारिक संबंधी कथानक के जरिए कथाकार अपनी बहुमुखी सजगता का परिचय दे देती है। अपनी सादगी और अनुभूति की प्रमाणिकता के कारण इनकी कहानियाँ विशेष रूप से प्रशंसा प्राप्त करती है। हिन्दी कहानी में नया तेवर और नए स्वाद के साथ पांच दशक पूर्व जब मन्नू जी का पदार्पण हुआ था उसी समय इस धरोहर को हिन्दी पाठकों ने बड़े आराम से पहचान लिया था। मन्नू भंडारी हिन्दी कहानी के उस दौर की  एक महत्वपूर्ण लेखिका है, जिसे ‘नई कहानी आन्दोलन’ के नाम से जाना जाता है। उनकी कथा - यात्रा हिन्दी कथा साहित्य में एक नया मोड़ लेकर आया। पारिवारिक संबंधों की गहरी होती हुई दरारें, अन्तर्द्वन्द से उठता हुआ सैलाब, पात्रों की उठती-गिरती मानसिकता मन्नू जी के कथा साहित्य के सबसे महत्वपूर्ण पहलू हैं। परिवार एक पवित्र तथा उपयोगी संस्था है। इसमे मानव की सर्वांगीण उन्नति का आधार, सहयोग, सहायता और पारस्परिकता का भाव रहता है। यह भाव वह शक्ति है जिसके आधार पर मनुष्य जंगली स्थिति से उन्नति करता-करता आज की सभ्य स्थिति में पहुँचा है। परिवार से मिलकर समाज और समाज से मिलकर राष्ट्र का निर्माण होता है। सामंती समाज में, सामाजिक संस्थाओं में परिवार का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। सम्पूर्ण सामाजिक संस्थाओं में परिवार ही वह मूलभूत सामाजिक व्यवस्था है, यह वह कड़ी है जो व्यक्ति का संबंध समाज से जोड़ता है। व्यक्ति को सामजिक बनाने में इस परिवार का स्वरुप प्रायः संयुक्त हुआ करता था। संयुक्त परिवार उसे कहते हैं जहाँ रक्त संबंध से जुड़े लोग सम्मिलित रूप से रहते हैं। भारतीय समाज में व्यस्था के आरम्भ से ही संयुक्त परिवार का विशेष महत्व रहा है। लेकिन आज संयुक्त परिवारों के स्थान पर छोटे-छोटे परिवारों में ही सुख की खोज की जा रही है। संयुक्त परिवार की उत्पति भारत में जिस समय में हुई आज की परिस्थितियाँ उससे निश्चित ही अलग है। कहानीकार मन्नू भंडारी की रचनाओं में स्वधीनता के शब्द भारतीय समाज में बदलते जीवन के मूल्यों और ख़ास तौर से बदलती पारिवारिक संरचना का यथार्थबोध के स्तर पर अंकित है। पारिवारिक यथार्थबोध को मन्नू भंडारी की कहानिओं में कई स्तर पर देखा जा सकता है। “एखाने आकाश नाई” मन्नू भंडारी की एक उल्लेखनीय कहानी है जिसमे संयुक्त परिवार की बदलती हुई संरचना का यथार्थबोध स्तर विधमान है। इस कहानी की एक पात्र ‘चाची’ के माध्यम से संयुक्त परिवार की वेदना को स्पष्ट किया गया है। “जब अपना आदमी ही नहीं पूछे, तो दूसरों को क्या दोष दूँ। तुम्हारी तरह पढ़ी- लिखी होती तो मै कमाकर खा लेती। तुम्हें तो याद होगा, तुम शादी होकर आई थी तब कैसी दिखती थी गौरा---- अब देखो लो कैसी हो गई हो-----“ इस रचना में ग्रामीण और शहरी परिवेश में असंतोष है। जब कथा नायिका ‘लेखा’ शहरी जीवन से उबकर सुकून की साँस लेने गाँव आती है तो वहाँ संयुक्त परिवार के विसंगतियों से उबकर शहर की याद में खो जाती है। “एखाने आकाश नाई” एक अन्य स्त्री पात्र सुषमा भी संयुक्त परिवार की विसंगतियों की शिकार है क्योंकि कमाने वाली कन्या का परिवार इसलिए उसकी विवाह नहीं करता कि उसके चले जाने के बाद माता- पिता की कमाई बंद हो जाएगी। यह बिल्कुल नया पारिवारिक यथार्थबोध है। “छत बनानेवाले” शीर्षक कहानी में संयुक्त परिवार की दो स्थितियों पर संतुलित प्रकाश डाला गया है। कहानी में परिवार का एक हिस्सा गाँव में रहता है तो दूसरा शहर में। मन्नू भंडारी ने “छत बनानेवाले” कहानी में गहराई के साथ यह चित्रित किया है कि परिवार के किसी भी सदस्य को सामंती सामूहिक नैतिकता के विरुद्ध आचरण करने का कोई अधिकार नहीं है। “मज़बूरी” कहानी में मन्नू भंडारी ने दो पीढ़ियों के वैचारिकी अंतराल से उत्पन्न हुई पारिवारिक समस्याओं को दर्शाया है। इस कहानी में माँ-बाप और बच्चों के बीच की दूरी के बारे में दिखाया गया है। “सयानी बूआ” नामक कहानी में तत्कालीन समाज के यथार्थ को उजागर करता है। अनुशासन की बहुलता किस प्रकार की स्थिति पैदा कर सकता है यह मन्नू भंडारी की “सयानी बुआ” नामक कहानी में विशेष रूप से उभारा है। आजाद भारत की परिवार व्यवस्था के संदर्भ में “सजा” मन्नू भंडारी की प्रारम्भिक कहानी है। यह कहानी एक संयुक्त परिवार की अवधारणा की टूटने से संबंधित है। “सजा” कहानी में एक ओर न्याय में विलंब होने पर मार्मिक व्यंग्य है तो दूसरी ओर आर्थिक अभाव के कारण परिवार में आनेवाले बिखराव का मर्मस्पर्शी चित्रण है। इस कहानी में मन्नू जी ने मध्यवर्गीय परिवार में पैसों की कमी से उत्पन्न हुए आर्थिक स्थितियों के कारण परिवार विघटित होने की यथार्थता, समाज और न्यायलय में होने वाले अन्याय आरोपण के द्वरा एक मध्यवर्गीय निर्दोष परिवार के माध्यम से यथार्थबोध का सुंदर चित्रण किया है। मन्नू भंडारी की अधिकांश कहानियाँ किसी न किसी संदर्भ में पारिवारिक संबंधो के यथार्थ से जुडी है। परन्तु “दीवार बच्चे और बरसात”, “नकली हीरे”, “नई नौकरी”, “बंद दरवाजों का साथ”, “उचाई”, “दरार भरने की दरार”, “शायद”, “रेत की दीवार”, “तीसरा हिस्सा”, “एखाने आकाश नाई”, कहानियाँ और “एक इंच आकाश” तथा “आपका बंटी” उपन्यास आदि में विस्तृत रूप से पारिवारिक घुटन और त्रासदी को स्पष्ट करने वाली रचनाएँ है। मन्नू भंडारी का जिक्र हो और “आपका बंटी” उपन्यास की बात नहीं हो यह संभव नही, ये उनकी कालजयी रचना है, इस उपन्यास में मन्नू जी ने विवाह विच्छेद की त्रासदी में पिस रहे एक बच्चे को केन्द्र में रखकर कहानी बुनी है। बाल मनोविज्ञान की गहरी समझ बूझ के लिए चर्चित और प्रशंसित इस उपन्यास का हर पृष्ठ मर्मस्पर्शी और विचारोत्तेजक है। हिन्दी कथा साहित्य में मन्नू की ये अनमोल भेट है। “यथार्थ का तात्पर्य है, जो वस्तु अथवा घटना जैसी घटी है, उसका वैसे ही वर्णन करना। मनुष्य का जीवन अच्छाई और बुराई दोनों से परिपूर्ण होता है। मानव- जीवनशक्ति तथा दुर्बलता, लघुता तथा महता, कुरूपता तथा सुरूपता का समन्वय है। इन सभी का मिला - जुला रूप का वर्णन ही यथार्थ के अंतर्गत आता है।
उपसंहार- स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात स्त्रियों की स्थिति शिक्षा के प्रचार- प्रसार में काफी हद तक बदल गई है। मन्नू जी ने भी स्नाकोतर की उपाधि प्राप्त कर अपने आपको समृद्ध बनाया मन्नू जी ने भी अध्ययन के पश्चात् नौकरी की शुरुआत की पहले विधालय फिर महाविश्वविधालय में। मन्नू जी ने अपने पिता की रजामंदी के विरुद्ध अपनी मर्जी से राजेन्द्र यादव जी के साथ विवाह किया और अपनी स्त्री शक्ति लगाकर इस विवाह को अटूट बंधन में बांधे रखा। मन्नू जी ने यह सिद्ध कर दिया कि वे आधुनिक भारतीय नारी की प्रतीक हैं। महिला लेखन की परम्परा की शुरुआत जिन लेखिकाओं ने की मन्नू भंडारी उनमे से एक प्रमुख हस्ताक्षर हैं। उन्होंने स्त्री जीवन के हर पहलू को अपनी कहानिओं और उपन्यासों में दर्शाया है। विवाह योग्य कन्या से लेकर नौकरी पेशा स्त्री के संघर्ष, युवा माता की समस्याएँ, परित्यकता स्त्री की समस्यायें, तलाकशुदा स्त्री का जीवन, ये सब अनायास ही मन्नू जी के कथा संसार का अंग बनते चले गए तथा उनकी कहानी और उपन्यास में इनके आकार जीवन्त हो उठे। मन्नू जी की सहजता, विशिष्टता और स्वाभाविकता ही उन्हें विशिष्ट बनाती है।

सन्दर्भ ग्रंथ :
1.       डा. वासुदेव नन्दन प्रसाद
2.       सुधा अरोड़ा
3.       मंजू कुमारी
4.       सी.एच. चारुमती देवी
5.       प्रो. गोपेश्वर सिंह
6.       हिन्दी कुंज.कॉम


               

परिवार का बदलता स्वरूप

साधारण बोल - चाल की भाषा में संस्कार का अर्थ होता है शुद्धिकरण संस्कार के दो रूप है -आतंरिक रूप और बाहरी रूप। बाहरी रूप का नाम रीति-रिवाज है जो हमारी आतंरिक रूप की रक्षा करता है। आतंरिक रूप हमारी जीवन चर्या में शामिल है जो कुछ नियमों पर आधारित होता  है। इन नियमों के पालन में अनुशासन का बहुत महत्व होता है  अनुशासन और सामाजिक नियमों को सम्मान देकर ही मनुष्य आत्मिक उन्नति प्राप्त कर सकता है।

हम सब ने बचपन से यही सुना है कि ‘परिवार ही सामाजिक जीवन की प्राथमिक पाठशाला है’ और माँ हमारी प्रथम शिक्षिका होती है। बचपन से ही परिवार में चल रही गतिविधियों को देख- देखकर बच्चे उसे अपनी जिन्दगी में अपनाने लगते हैं। आवश्यक नहीं की सभी बातें पाठशाला की तरह बैठकर पढ़ाई जाये। बहुत कुछ बच्चे सहज ही देख कर और सुन कर सीख जाते हैं। बच्चों का लालन-पालन जब संयुक्त परिवार में होता था, तो चाचा-चाची, ताऊ–ताई, दादा–दादी, भैया-भाभी और बुआ तथा दीदी से उन्हें बहुत कुछ सीखने को मिलता था। समय के साथ-साथ परिवार की परिभाषा भी बदल गई है। परिवार की आर्थिक और शैक्षिक स्थितियों के अनुसार, जीविकोपार्जन के लिए भटकते लोगों की उलझती जिन्दगी में, संयुक्त परिवार कब खो गया पता ही नहीं चला। अब परिवार की परिभाषा में हम दो’ और हमारे दो’ के आगे दादा-दादी भी खोते जा रहे हैं। उसपर जीविकोपार्जन के लिए भटकते लोगों के पास समय का आभाव, बच्चों को परिवार से निकाल कर हॉस्टल तक पहुंचा दिया। बढ़ते प्रतिस्पर्धा के दौर में स्तरीय शिक्षा भी, एक बहाना बन गया और छोटे-छोटे बच्चे जिन्हें परिवार में अपनों से कदम-कदम पर जो स्नेह और शिक्षा मिलना था, उससे वे बंचित रह गये। जिसके कारण बच्चों को सामिजिक जिम्मेदारियों की शिक्षा नहीं मिल रही है। नतीजा बड़े होकर पारिवारिक रिश्तों की अहमियत पहचानने में कमी आने लगी है। इसतरह बड़े होकर ये बच्चे बुजुर्गों को वृद्धाश्रम पहुँचाने लगे हैं। शहरों में बोर्डिंग स्कूल और वृद्धाश्रम की बढ़ती हुई संख्या इसका प्रमाण है। इसे सामाज सेवा के रूप में कम और व्यवसाय के नये विकल्प के रूप में अधिक देखा जाने लगा है। प्रश्न यह उठता है कि इन परिस्थियों के लिए कौन ज़िम्मेदार है और इसका समाज पर क्या दूरगामी परिणाम होगा ? विषय बहुत गम्भीर है और जिस तरह से पारिवारिक, सामाजिक और देश हित में होने वाले सभी विषय पर राजनिति होने लगता है, डर है यह विषय भी राजनीति के बली न चढ़ जाये। इसलिए इस विषय पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है। लेकिन रोज-रोज की बढती हुई पारिवारिक समस्याओं से मुंह भी तो नहीं मोड़ा जा सकता। ‘आपसी सम्बन्धों में बढ़ती दूरियों के कारण सिसकती हुई जिन्दगी’ और ‘सहमे हुए लोगों की बढती हुई समस्याओं’ पर विचार करना आवश्यक है। 

इस समस्या को कम करने के लिए बच्चों के परवरिश पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। मैं यहाँ पुत्र और पुत्रियों में कोई भिन्नता नहीं करना चाहती। माँ और देश के लिए तो दोनों बच्चे एक समान होते हैं चाहे वो पुत्र हो या पुत्री। ऐसा नहीं है कि पुत्र अगर गलती करता है तो वह स्वीकार है और पुत्री वही गलती करती है तो वह स्वीकार नहीं है। गलती चाहे जो भी करे गलत तो गलत है। यहाँ मैं बात संस्कार की करना चाहती हूँ - दुनिया की हर स्त्री एक पुत्री है और हर स्त्री, बहु तथा माँ बनती है। हम एक कहावत सुनते हैं कि ‘बेटी पराया धन’ है। इस मानसिकता ने परिवारिक सामंजस्य का बहुत बड़ा नुकसान किया है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि बेटियाँ कोई वस्तु या धन नहीं हैं और पराया तो विल्कुल नहीं बल्कि वो दुसरे घर की ही मालकिन तथा भविष्य हैं। सिर्फ समझने की जरूरत है कि बेटी से मालकिन तक की ये यात्रा ‘बहु’ और ‘माँ’ से होकर जाता है। जो बेटी अपनी इस यात्रा की जिम्मेदारियों को जितनी अच्छी तरह से और जितनी जल्द समझती है और जितना प्रेम से अपनी इस यात्रा को सम्भालती है, घर परिवार और समाज में उसको उतना ही सम्मान मिलता है। आवश्यक है की हम उन्हें इस उतरदायित्व के लिए पहले से तैयार करें। यहाँ यह कहना होगा की बेटियों की अच्छी शिक्षा इसमें अहम भूमिका निभा सकती है। किसी ने सच कहा है – बेटा माता–पिता को स्वर्ग पहुँचाता है, बेटियाँ स्वर्ग को घर में लाती है और बहुएँ घर को स्वर्ग बनाती हैं। तकनीकी शिक्षा के साथ-साथ सामाजिक शिक्षा पर भी जोर दिया जाना जरूरी है अन्यथा घर सिर्फ़ मकान बन कर रह जयेगा। इलेक्ट्रोनिक माध्यमों के बढ़ते प्रयोग से वैसे भी रिश्तों में दूरियां बढ़ रही है और दिलों में फासले आने लगे हैं।

मेरी हर माँ से प्रार्थना और नम्र निवेदन है कि वे अपनी बेटी को ऐसी शिक्षा दें कि वो अपने घर को बर्बाद होने से बचाएं। आज के समय में विवाह के पश्चात ही लड़कियाँ अपने पति के अलावा किसी और को बर्दास्त नहीं करती हैं। यह बहुत बड़ी बिडम्बना है। मुझे तो ऐसा लगता है जैसा कि आज के इस युग में लड़की के माता – पिता ज्यादा सुखी हैं क्योंकि लड़कियां तो अपने माँ-बाप से जुड़ी रहती हैं और पति से ही उसके माता–पिता को दूर कर देतीं है। पुरुष अपनी इज्जत बचाने के लिये चुप रहता है। रोज-रोज की बढ़ती हुई झिक-झिक के आगे वो समर्पण कर देता है। ऐसा सभी के साथ नहीं होता है लेकिन इस तरह की परिस्थितियां बढ़ने लगी हैं। वैदिक काल में भी नारियों को हर स्तर पर सम्मान एवम् श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता था। उन्हें पुरुषों के समान अवसर उपलब्ध थे। वे भी हर क्षेत्र में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती थीं। गृहकार्य से लेकर कृषि, प्रशासन एवम् यज्ञ कर्म से लेकर अध्यात्म साधना तक, सर्वत्र उनकी सम्मान जनक उपस्थिति दिखाई देता है। कहीं-कहीं वह मंत्रद्रष्टा ऋषिका के रूप में भी अपना वर्चस्व प्रकट करती थीं। वैदिक समाज में पुत्र के समान ही पुत्री को स्नेह - दुलार एवम् आदर सम्मान दिया जाता था। ऋग्वेद में भी पुत्र एवम् पुत्री के दीर्घायु की कामना का उल्लेख मिलता है। उस युग में भी धार्मिक कार्यो में बालिकाओं को बालकों के समान अवसर प्राप्त थे। अथर्ववेद में भी बालिकाएं ब्रह्मचर्य का पालन करती हुई विविध प्रकार की विधाओं में पारंगत होती थीं। ऐसी कन्याओं का भी उल्लेख मिलता है जिन्होंने तपस्या के बल पर अभिष्ठ वर की प्राप्ति की जैसे- उमा, धर्मव्रता आदि। शिक्षा के साथ ही वे नाना प्रकार के गायन, वादन एवम् नृत्य जैसी ललित कलाओं में भी प्रवीण थीं। इसप्रकार कन्याओं को वैदिक काल में भी उच्च स्थान प्राप्त था। बालकों की तरह शिक्षा ग्रहण करती हुई वे नाना प्रकार की विधाओं से विभूषित होती थीं। पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत लेकर शिक्षा ग्रहण करती हुई युवा होने पर उनका विवाह होता था। पत्नी के रूप में भी स्त्री को उच्च स्थान प्राप्त था। ब्रह्मवाद्नी स्त्रियाँ उपनिषद युग की विशिष्टता मानी जा सकती थी। ये स्त्रियाँ ब्रह्म विषयक व्याख्यान में अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर देती थीं। उस युग में वे महान दार्शनिकों से वाद-विवाद एवम् शास्त्रार्थ करती थीं। इस सन्दर्भ में मैत्रयी और गार्गी के संवाद का उल्लेख आता है। प्राचीन इतिहास में ‘सुलभा’ का नाम प्रसिद्ध है। सुलभा का संकल्प था कि जो कोई उसे शास्त्रार्थ में परास्त कर देगा उसी से वह विवाह करेगी पुरातन युग में भी ‘स्त्री’ सुगृहनी होने के साथ पति के सामाजिक एवम् राजनैतिक जीवन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं। यहाँ राजा कुन्तिभोज की पुत्री कुंती के नाम का उल्लेख अनुचित नहीं होगा। कुंती ने अपने आतिथ्य सत्कार से दुर्वासा जैसे क्रोधी ऋषि को प्रसन्न कर मनचाहा वर प्राप्त किया था। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि संहिता काल से लेकर महाकाव्य काल तक स्त्रियों को शिक्षा का पूर्ण अधिकार था। कहने का तात्पर्य यह है कि – आज के माता –पिता ये ना समझें की हमारी बेटी को हमने अधिक शिक्षित किया है। हाँ शिक्षित तो हमने किया है इसमे कोई दो राय नहीं है लेकिन हम संस्कार देने में कंजूसी करने लगे हैं। हम भूल रहे हैं कि हमारी बेटी एक नये घर की बहू होगी तथा हर माँ किसी न किसी की बेटी है और जिसे आज वो अपना घर कहती है, कभी उसके लिए भी नया और शायद अनजान था आज जितना आदर और सम्मान उसे इस नये घर में मिलता है उतना अब उस घर में नहीं होता होगा जहाँ उसने जन्म लिया और पली बढ़ी है। खासकर जब उसके माता-पिता इस दुनिया से चले जाते हैं  

यदि हम सभी माता–पिता अपनी बेटियों को शिक्षा के साथ – साथ अच्छी संस्कार दें, उनमें अच्छी भावनाओं का विकास करें तो उनका परिवार में मान-सम्मान बढ़ेगा और दोनों तरफ खुशियों का वातावरण बना रहेगा। आवश्यकता है कि हम सभी, अपनी बेटियों को शिक्षा के साथ–साथ यह संस्कार भी दें कि तुम दो घरों की भविष्य हो और दोनों घर को सम्भालने की जिम्बेदारी तुम्हारी है समय के साथ-साथ वही बहु जब माँ बनती है और जब समय आता है कि घर में उसकी भी बहु आती है तब तक वही बेटी इस नये घर की मालकिन हो जाती है। यही घर सहज ही उसका अपना हो जाता है। इसतरह हमें अपनी बेटियों में ये संस्कार देने ही होंगे की वो समझ सके कि वही बेटी उस नये घर की भविष्य (मालकिन) है। वह पराया धन नहीं है।

अब हम यदि देर करेगें तो शायद वृद्धा आश्रमों की संख्या और अधिक बढ़ते चले जायेंगे और हम भी कही न कही उस आश्रम में पड़े होंगे। हमें बेटों से अधिक बेटियों को शिक्षित करने की जरुरत है क्योंकि बेटी ही तो बहु और माँ होती है। लोग कहते हैं कि अमुक आदमी ने अपनी माँ-बाप को वृद्धाआश्रम छोड़ दिया। अगर बेटा को ही अपने माता–पिता को वृद्धाआश्रम छोड़ना होता तो विवाह से पहले भी तो छोड़ सकता था लेकिन विवाह के बाद ही ऐसा क्यों होता है ? क्यों ? आज की बेटियां सिर्फ एक घर को ही सम्भाल पा रहीं है जिसका उतरदायित्व उनके माता–पिता तक सीमित रहने लगा है। इस संकुचित सोंच को सामाजिक स्तर पर समझने की जरुरत है। यदि माता–पिता के प्रति अपने जिम्मेदारियों को समझते हुए पति सास–ससुर जो की जिंदगी भर का परिवार है उसे न भूले तो ना ही दोनों परिवार सुखी होंगे बल्कि समाज और देश का भी कल्याण होगा। युवा पीढ़ी के ऊपर अनावश्यक पारिवारिक चिंताएं और कलह हावी होने की जगह उन्हें देश हित में और समाज हित में सोंचने का अधिक से अधिक अवसर मिलेगा। ये बातें छोटी हो सकती है लेकिन बहुत महत्वपूर्ण है। हमें स्वीकारना होगा कि प्रदुषित आरम्भिक शिक्षा और बढ़ती पारिवारिक कलह के कारण युवाओं में चिंता और डिप्रेशन जैसी बीमारियाँ कम उम्र में ही हावी होने लगी हैं। जबकि अविवाहित पुरुष या स्त्री का समाज को एक अलग योगदान दिखाई दे रहा है। इस तरह से पारिवारिक जिम्मेदारियां सम्भालने में आज के युवा कहीं न कहीं कमज़ोर पड़ने लगे हैं। ये बहुत ही चिंता का विषय है और आज आवश्यक है कि हम विज्ञान और चिकित्सा के शिक्षा के साथ–साथ साहित्य और समाज अध्ययन पर भी विशेष ध्यान दें। जिससे हमारी आने वाली पीढ़ी सामाजिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों को और भी बेहतर ढंग से समझ सकें। डाक्टर, अभियंता नहीं हो सकता, अभियंता नेता और अभिनेता नही हो सकते लेकिन सभी डाक्टर, अभियंता, नेता और अभिनेता किसी न किसी के बेटा या बेटी हैं, किसी न किसी के पिता या माता हैं, किसी न किसी के भाई या बहन हैं और किसी न किसी के दादा और दादी जरुर बनेंगे। इसलिए पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों के महत्व को समझना और समझाना बहुत महत्वपूर्ण है।



रामकृष्ण परमहंस

भारत एक विशाल देश है। इस देश में अनेक भाषा भाषी, संस्कृति तथा जाति के लोग रहते हैं। यहाँ प्रकृति ने प्राणियों के लिए अनेक सुख सुविध...