साधारण बोल - चाल की भाषा में संस्कार का अर्थ होता है शुद्धिकरण। संस्कार के दो रूप है -आतंरिक रूप और बाहरी रूप। बाहरी रूप का नाम
रीति-रिवाज है जो हमारी आतंरिक रूप की रक्षा करता है। आतंरिक रूप हमारी जीवन चर्या
में शामिल है जो कुछ नियमों पर आधारित होता
है। इन नियमों के पालन में अनुशासन का बहुत महत्व होता है। अनुशासन और सामाजिक नियमों को
सम्मान देकर ही मनुष्य आत्मिक उन्नति प्राप्त
कर सकता है।
हम सब ने बचपन से
यही सुना है कि ‘परिवार ही सामाजिक जीवन की प्राथमिक पाठशाला है’ और माँ
हमारी प्रथम शिक्षिका होती है। बचपन से ही परिवार में चल रही गतिविधियों को देख- देखकर बच्चे उसे अपनी जिन्दगी में अपनाने लगते हैं। आवश्यक नहीं की सभी
बातें पाठशाला की तरह बैठकर पढ़ाई जाये। बहुत कुछ बच्चे सहज ही देख कर और सुन कर
सीख जाते हैं। बच्चों का लालन-पालन जब संयुक्त परिवार में होता था, तो चाचा-चाची, ताऊ–ताई, दादा–दादी, भैया-भाभी और बुआ तथा दीदी से उन्हें
बहुत कुछ सीखने को मिलता था। समय के साथ-साथ परिवार की परिभाषा भी बदल गई है। परिवार
की आर्थिक और शैक्षिक स्थितियों के अनुसार, जीविकोपार्जन के लिए भटकते लोगों की
उलझती जिन्दगी में, संयुक्त परिवार कब खो गया पता ही नहीं चला। अब परिवार की
परिभाषा में हम ‘दो’ और हमारे ‘दो’ के आगे दादा-दादी भी खोते जा रहे हैं।
उसपर जीविकोपार्जन के लिए भटकते लोगों के पास समय का आभाव, बच्चों को परिवार से
निकाल कर हॉस्टल तक पहुंचा दिया। बढ़ते प्रतिस्पर्धा के दौर में स्तरीय शिक्षा भी,
एक बहाना बन गया और छोटे-छोटे बच्चे जिन्हें परिवार में अपनों से कदम-कदम पर जो
स्नेह और शिक्षा मिलना था, उससे वे बंचित रह गये। जिसके कारण बच्चों को सामिजिक जिम्मेदारियों की शिक्षा नहीं
मिल रही है। नतीजा बड़े होकर पारिवारिक रिश्तों की अहमियत पहचानने में कमी आने लगी
है। इसतरह बड़े होकर ये बच्चे बुजुर्गों को वृद्धाश्रम पहुँचाने लगे हैं। शहरों में
बोर्डिंग स्कूल और वृद्धाश्रम की बढ़ती हुई संख्या इसका प्रमाण है। इसे सामाज सेवा
के रूप में कम और व्यवसाय
के नये विकल्प के रूप में अधिक देखा जाने लगा है। प्रश्न यह उठता है कि इन परिस्थियों के लिए कौन ज़िम्मेदार है और इसका समाज
पर क्या दूरगामी परिणाम होगा ? विषय बहुत गम्भीर है और जिस तरह से पारिवारिक, सामाजिक और देश
हित में होने वाले सभी विषय पर राजनिति होने लगता है, डर है यह विषय भी राजनीति के बली न चढ़
जाये। इसलिए इस विषय पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है। लेकिन रोज-रोज की बढती हुई
पारिवारिक समस्याओं से मुंह भी तो नहीं मोड़ा जा सकता। ‘आपसी सम्बन्धों में बढ़ती
दूरियों के कारण सिसकती हुई जिन्दगी’ और ‘सहमे हुए लोगों की बढती हुई समस्याओं’ पर
विचार करना आवश्यक है।
इस समस्या को कम
करने के लिए बच्चों के परवरिश पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। मैं यहाँ पुत्र और
पुत्रियों में कोई भिन्नता नहीं करना चाहती। माँ और देश के लिए तो दोनों बच्चे एक समान
होते हैं चाहे वो पुत्र हो या पुत्री। ऐसा नहीं है कि पुत्र अगर गलती करता है तो
वह स्वीकार है और पुत्री वही गलती करती है तो वह स्वीकार नहीं है। गलती चाहे जो भी
करे गलत तो गलत है। यहाँ मैं बात संस्कार की करना चाहती हूँ - दुनिया की हर
स्त्री एक पुत्री है और हर स्त्री, बहु तथा माँ बनती है। हम एक कहावत सुनते हैं कि ‘बेटी पराया धन’
है। इस मानसिकता ने
परिवारिक सामंजस्य का बहुत बड़ा नुकसान किया है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि बेटियाँ
कोई वस्तु या धन नहीं हैं और पराया तो विल्कुल नहीं बल्कि वो दुसरे घर की ही
मालकिन तथा भविष्य हैं। सिर्फ समझने की जरूरत है कि बेटी से मालकिन तक की ये
यात्रा ‘बहु’ और ‘माँ’ से होकर जाता है। जो बेटी अपनी इस यात्रा की जिम्मेदारियों को जितनी अच्छी तरह से और जितनी
जल्द समझती है और जितना प्रेम से अपनी इस यात्रा को सम्भालती है, घर परिवार और
समाज में उसको उतना ही सम्मान मिलता है। आवश्यक है की हम उन्हें इस उतरदायित्व के
लिए पहले से तैयार करें। यहाँ यह कहना होगा की
बेटियों की अच्छी शिक्षा इसमें अहम भूमिका निभा सकती है। किसी ने सच कहा है – बेटा
माता–पिता को स्वर्ग पहुँचाता है, बेटियाँ स्वर्ग को घर में लाती है और बहुएँ घर
को स्वर्ग बनाती हैं। तकनीकी शिक्षा
के साथ-साथ सामाजिक शिक्षा पर भी जोर दिया जाना जरूरी है अन्यथा घर सिर्फ़ मकान बन
कर रह जयेगा। इलेक्ट्रोनिक माध्यमों के बढ़ते प्रयोग से वैसे भी रिश्तों में
दूरियां बढ़ रही है और दिलों में फासले आने लगे हैं।
मेरी हर माँ से
प्रार्थना और नम्र निवेदन है कि वे अपनी बेटी को ऐसी शिक्षा दें कि वो अपने घर को
बर्बाद होने से बचाएं। आज के समय में विवाह के पश्चात ही लड़कियाँ अपने पति के
अलावा किसी और को बर्दास्त नहीं करती हैं। यह बहुत बड़ी बिडम्बना है। मुझे तो ऐसा
लगता है जैसा कि आज के इस युग में लड़की के माता – पिता ज्यादा सुखी हैं क्योंकि
लड़कियां तो अपने माँ-बाप से जुड़ी रहती हैं और पति से ही उसके माता–पिता को दूर कर
देतीं है। पुरुष अपनी इज्जत बचाने के लिये चुप रहता है। रोज-रोज की बढ़ती हुई झिक-झिक के आगे वो समर्पण कर देता है। ऐसा सभी के साथ नहीं होता है लेकिन इस तरह की
परिस्थितियां बढ़ने लगी हैं। वैदिक काल में भी नारियों को हर स्तर पर सम्मान एवम्
श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता था। उन्हें पुरुषों के समान अवसर उपलब्ध थे। वे भी
हर क्षेत्र में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती थीं। गृहकार्य से लेकर कृषि, प्रशासन एवम्
यज्ञ कर्म से लेकर अध्यात्म साधना तक, सर्वत्र उनकी सम्मान जनक उपस्थिति दिखाई
देता है। कहीं-कहीं वह मंत्रद्रष्टा ऋषिका के रूप में भी अपना वर्चस्व प्रकट करती
थीं। वैदिक समाज में पुत्र के समान ही पुत्री को स्नेह - दुलार एवम् आदर सम्मान
दिया जाता था। ऋग्वेद में भी पुत्र एवम् पुत्री के दीर्घायु की कामना का उल्लेख
मिलता है। उस युग में भी धार्मिक कार्यो में बालिकाओं को बालकों के समान अवसर
प्राप्त थे। अथर्ववेद में भी बालिकाएं ब्रह्मचर्य का पालन करती हुई विविध प्रकार
की विधाओं में पारंगत होती थीं। ऐसी कन्याओं का भी उल्लेख मिलता है जिन्होंने
तपस्या के बल पर अभिष्ठ वर की प्राप्ति की जैसे- उमा, धर्मव्रता आदि। शिक्षा के साथ
ही वे नाना प्रकार के गायन, वादन एवम् नृत्य जैसी ललित कलाओं में भी प्रवीण थीं। इसप्रकार कन्याओं
को वैदिक काल में भी उच्च स्थान प्राप्त था। बालकों की तरह शिक्षा ग्रहण करती हुई वे नाना
प्रकार की विधाओं से विभूषित होती थीं। पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत लेकर शिक्षा ग्रहण
करती हुई युवा होने पर उनका विवाह होता था। पत्नी के रूप में भी स्त्री को उच्च स्थान
प्राप्त था। ब्रह्मवाद्नी स्त्रियाँ उपनिषद युग की विशिष्टता मानी जा सकती थी। ये
स्त्रियाँ ब्रह्म विषयक व्याख्यान में अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर देती थीं। उस युग
में वे महान दार्शनिकों से वाद-विवाद एवम् शास्त्रार्थ करती थीं। इस सन्दर्भ में
मैत्रयी और गार्गी के संवाद का उल्लेख आता है। प्राचीन इतिहास में ‘सुलभा’ का नाम प्रसिद्ध
है। सुलभा का संकल्प था कि जो कोई उसे शास्त्रार्थ में परास्त कर देगा उसी से वह
विवाह करेगी। पुरातन युग में भी ‘स्त्री’ सुगृहनी होने के साथ पति के
सामाजिक एवम् राजनैतिक जीवन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं। यहाँ राजा
कुन्तिभोज की पुत्री कुंती के नाम का उल्लेख अनुचित नहीं होगा। कुंती ने अपने आतिथ्य सत्कार से दुर्वासा जैसे क्रोधी ऋषि को प्रसन्न कर मनचाहा वर
प्राप्त किया था। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि संहिता काल से लेकर महाकाव्य काल तक
स्त्रियों को शिक्षा का पूर्ण अधिकार था। कहने का तात्पर्य यह है कि – आज के माता –पिता
ये ना समझें की हमारी बेटी को हमने अधिक शिक्षित किया है। हाँ शिक्षित तो हमने
किया है इसमे कोई दो राय नहीं है लेकिन हम संस्कार देने में कंजूसी करने लगे हैं। हम भूल रहे हैं कि हमारी
बेटी एक नये घर की बहू होगी तथा हर माँ किसी न किसी की बेटी है और जिसे आज वो अपना
घर कहती है, कभी उसके लिए भी नया और शायद अनजान था। आज जितना आदर और सम्मान
उसे इस नये घर में मिलता है उतना अब उस घर में नहीं होता होगा जहाँ उसने जन्म लिया
और पली बढ़ी है। खासकर जब उसके माता-पिता इस दुनिया से चले जाते हैं।
यदि हम सभी माता–पिता
अपनी बेटियों को शिक्षा के साथ – साथ अच्छी संस्कार दें, उनमें अच्छी भावनाओं का
विकास करें तो उनका परिवार में मान-सम्मान बढ़ेगा और दोनों तरफ खुशियों का वातावरण
बना रहेगा। आवश्यकता है कि हम सभी, अपनी बेटियों को शिक्षा के साथ–साथ यह संस्कार भी दें कि तुम दो
घरों की भविष्य हो और दोनों घर को सम्भालने की जिम्बेदारी तुम्हारी है। समय के साथ-साथ वही बहु जब माँ बनती है और जब समय आता है कि घर में उसकी
भी बहु आती है तब तक वही बेटी इस नये घर की मालकिन हो जाती है। यही घर सहज ही उसका
अपना हो जाता है। इसतरह हमें अपनी बेटियों में ये संस्कार देने ही होंगे की वो समझ
सके कि वही बेटी उस नये घर की भविष्य (मालकिन) है। वह पराया धन नहीं है।
अब हम यदि देर
करेगें तो शायद वृद्धा आश्रमों की संख्या और अधिक बढ़ते चले जायेंगे और हम भी कही न
कही उस आश्रम में पड़े होंगे। हमें बेटों से अधिक बेटियों को शिक्षित करने की जरुरत
है क्योंकि बेटी ही तो बहु और माँ होती है। लोग कहते हैं कि अमुक आदमी ने अपनी
माँ-बाप को वृद्धाआश्रम छोड़ दिया। अगर
बेटा को ही अपने माता–पिता को वृद्धाआश्रम छोड़ना होता तो विवाह से पहले भी
तो छोड़ सकता था लेकिन विवाह के बाद ही ऐसा क्यों होता है ? क्यों ? आज की बेटियां
सिर्फ एक घर को ही सम्भाल पा रहीं है जिसका उतरदायित्व उनके माता–पिता तक सीमित
रहने लगा है। इस संकुचित सोंच को सामाजिक स्तर पर समझने की जरुरत है। यदि माता–पिता
के प्रति अपने जिम्मेदारियों को समझते हुए पति सास–ससुर जो की जिंदगी भर का परिवार
है उसे न भूले तो ना ही दोनों परिवार सुखी होंगे बल्कि समाज और देश का भी कल्याण
होगा। युवा पीढ़ी के ऊपर अनावश्यक पारिवारिक चिंताएं और कलह हावी होने की जगह
उन्हें देश हित में और समाज हित में सोंचने का अधिक से अधिक अवसर मिलेगा। ये बातें
छोटी हो सकती है लेकिन बहुत महत्वपूर्ण है। हमें स्वीकारना होगा कि प्रदुषित आरम्भिक
शिक्षा और बढ़ती पारिवारिक कलह के कारण युवाओं में चिंता और डिप्रेशन जैसी
बीमारियाँ कम उम्र में ही हावी होने लगी हैं। जबकि अविवाहित पुरुष या स्त्री का समाज को एक
अलग योगदान दिखाई दे रहा है। इस तरह से पारिवारिक जिम्मेदारियां सम्भालने में आज
के युवा कहीं न कहीं कमज़ोर पड़ने लगे हैं। ये बहुत ही चिंता का विषय है और आज
आवश्यक है कि हम विज्ञान और चिकित्सा के शिक्षा के साथ–साथ साहित्य और समाज अध्ययन
पर भी विशेष ध्यान दें। जिससे हमारी आने वाली पीढ़ी सामाजिक और पारिवारिक
जिम्मेदारियों को और भी बेहतर ढंग से समझ सकें। डाक्टर, अभियंता नहीं हो सकता,
अभियंता नेता और अभिनेता नही हो सकते लेकिन सभी डाक्टर, अभियंता, नेता और अभिनेता
किसी न किसी के बेटा या बेटी हैं, किसी न किसी के पिता या माता हैं, किसी न किसी
के भाई या बहन हैं और किसी न किसी के दादा और दादी जरुर बनेंगे। इसलिए पारिवारिक
और सामाजिक रिश्तों के महत्व को समझना और समझाना बहुत महत्वपूर्ण है।