Sunday, 10 December 2017

परिवार का बदलता स्वरूप

साधारण बोल - चाल की भाषा में संस्कार का अर्थ होता है शुद्धिकरण संस्कार के दो रूप है -आतंरिक रूप और बाहरी रूप। बाहरी रूप का नाम रीति-रिवाज है जो हमारी आतंरिक रूप की रक्षा करता है। आतंरिक रूप हमारी जीवन चर्या में शामिल है जो कुछ नियमों पर आधारित होता  है। इन नियमों के पालन में अनुशासन का बहुत महत्व होता है  अनुशासन और सामाजिक नियमों को सम्मान देकर ही मनुष्य आत्मिक उन्नति प्राप्त कर सकता है।

हम सब ने बचपन से यही सुना है कि ‘परिवार ही सामाजिक जीवन की प्राथमिक पाठशाला है’ और माँ हमारी प्रथम शिक्षिका होती है। बचपन से ही परिवार में चल रही गतिविधियों को देख- देखकर बच्चे उसे अपनी जिन्दगी में अपनाने लगते हैं। आवश्यक नहीं की सभी बातें पाठशाला की तरह बैठकर पढ़ाई जाये। बहुत कुछ बच्चे सहज ही देख कर और सुन कर सीख जाते हैं। बच्चों का लालन-पालन जब संयुक्त परिवार में होता था, तो चाचा-चाची, ताऊ–ताई, दादा–दादी, भैया-भाभी और बुआ तथा दीदी से उन्हें बहुत कुछ सीखने को मिलता था। समय के साथ-साथ परिवार की परिभाषा भी बदल गई है। परिवार की आर्थिक और शैक्षिक स्थितियों के अनुसार, जीविकोपार्जन के लिए भटकते लोगों की उलझती जिन्दगी में, संयुक्त परिवार कब खो गया पता ही नहीं चला। अब परिवार की परिभाषा में हम दो’ और हमारे दो’ के आगे दादा-दादी भी खोते जा रहे हैं। उसपर जीविकोपार्जन के लिए भटकते लोगों के पास समय का आभाव, बच्चों को परिवार से निकाल कर हॉस्टल तक पहुंचा दिया। बढ़ते प्रतिस्पर्धा के दौर में स्तरीय शिक्षा भी, एक बहाना बन गया और छोटे-छोटे बच्चे जिन्हें परिवार में अपनों से कदम-कदम पर जो स्नेह और शिक्षा मिलना था, उससे वे बंचित रह गये। जिसके कारण बच्चों को सामिजिक जिम्मेदारियों की शिक्षा नहीं मिल रही है। नतीजा बड़े होकर पारिवारिक रिश्तों की अहमियत पहचानने में कमी आने लगी है। इसतरह बड़े होकर ये बच्चे बुजुर्गों को वृद्धाश्रम पहुँचाने लगे हैं। शहरों में बोर्डिंग स्कूल और वृद्धाश्रम की बढ़ती हुई संख्या इसका प्रमाण है। इसे सामाज सेवा के रूप में कम और व्यवसाय के नये विकल्प के रूप में अधिक देखा जाने लगा है। प्रश्न यह उठता है कि इन परिस्थियों के लिए कौन ज़िम्मेदार है और इसका समाज पर क्या दूरगामी परिणाम होगा ? विषय बहुत गम्भीर है और जिस तरह से पारिवारिक, सामाजिक और देश हित में होने वाले सभी विषय पर राजनिति होने लगता है, डर है यह विषय भी राजनीति के बली न चढ़ जाये। इसलिए इस विषय पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है। लेकिन रोज-रोज की बढती हुई पारिवारिक समस्याओं से मुंह भी तो नहीं मोड़ा जा सकता। ‘आपसी सम्बन्धों में बढ़ती दूरियों के कारण सिसकती हुई जिन्दगी’ और ‘सहमे हुए लोगों की बढती हुई समस्याओं’ पर विचार करना आवश्यक है। 

इस समस्या को कम करने के लिए बच्चों के परवरिश पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। मैं यहाँ पुत्र और पुत्रियों में कोई भिन्नता नहीं करना चाहती। माँ और देश के लिए तो दोनों बच्चे एक समान होते हैं चाहे वो पुत्र हो या पुत्री। ऐसा नहीं है कि पुत्र अगर गलती करता है तो वह स्वीकार है और पुत्री वही गलती करती है तो वह स्वीकार नहीं है। गलती चाहे जो भी करे गलत तो गलत है। यहाँ मैं बात संस्कार की करना चाहती हूँ - दुनिया की हर स्त्री एक पुत्री है और हर स्त्री, बहु तथा माँ बनती है। हम एक कहावत सुनते हैं कि ‘बेटी पराया धन’ है। इस मानसिकता ने परिवारिक सामंजस्य का बहुत बड़ा नुकसान किया है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि बेटियाँ कोई वस्तु या धन नहीं हैं और पराया तो विल्कुल नहीं बल्कि वो दुसरे घर की ही मालकिन तथा भविष्य हैं। सिर्फ समझने की जरूरत है कि बेटी से मालकिन तक की ये यात्रा ‘बहु’ और ‘माँ’ से होकर जाता है। जो बेटी अपनी इस यात्रा की जिम्मेदारियों को जितनी अच्छी तरह से और जितनी जल्द समझती है और जितना प्रेम से अपनी इस यात्रा को सम्भालती है, घर परिवार और समाज में उसको उतना ही सम्मान मिलता है। आवश्यक है की हम उन्हें इस उतरदायित्व के लिए पहले से तैयार करें। यहाँ यह कहना होगा की बेटियों की अच्छी शिक्षा इसमें अहम भूमिका निभा सकती है। किसी ने सच कहा है – बेटा माता–पिता को स्वर्ग पहुँचाता है, बेटियाँ स्वर्ग को घर में लाती है और बहुएँ घर को स्वर्ग बनाती हैं। तकनीकी शिक्षा के साथ-साथ सामाजिक शिक्षा पर भी जोर दिया जाना जरूरी है अन्यथा घर सिर्फ़ मकान बन कर रह जयेगा। इलेक्ट्रोनिक माध्यमों के बढ़ते प्रयोग से वैसे भी रिश्तों में दूरियां बढ़ रही है और दिलों में फासले आने लगे हैं।

मेरी हर माँ से प्रार्थना और नम्र निवेदन है कि वे अपनी बेटी को ऐसी शिक्षा दें कि वो अपने घर को बर्बाद होने से बचाएं। आज के समय में विवाह के पश्चात ही लड़कियाँ अपने पति के अलावा किसी और को बर्दास्त नहीं करती हैं। यह बहुत बड़ी बिडम्बना है। मुझे तो ऐसा लगता है जैसा कि आज के इस युग में लड़की के माता – पिता ज्यादा सुखी हैं क्योंकि लड़कियां तो अपने माँ-बाप से जुड़ी रहती हैं और पति से ही उसके माता–पिता को दूर कर देतीं है। पुरुष अपनी इज्जत बचाने के लिये चुप रहता है। रोज-रोज की बढ़ती हुई झिक-झिक के आगे वो समर्पण कर देता है। ऐसा सभी के साथ नहीं होता है लेकिन इस तरह की परिस्थितियां बढ़ने लगी हैं। वैदिक काल में भी नारियों को हर स्तर पर सम्मान एवम् श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता था। उन्हें पुरुषों के समान अवसर उपलब्ध थे। वे भी हर क्षेत्र में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती थीं। गृहकार्य से लेकर कृषि, प्रशासन एवम् यज्ञ कर्म से लेकर अध्यात्म साधना तक, सर्वत्र उनकी सम्मान जनक उपस्थिति दिखाई देता है। कहीं-कहीं वह मंत्रद्रष्टा ऋषिका के रूप में भी अपना वर्चस्व प्रकट करती थीं। वैदिक समाज में पुत्र के समान ही पुत्री को स्नेह - दुलार एवम् आदर सम्मान दिया जाता था। ऋग्वेद में भी पुत्र एवम् पुत्री के दीर्घायु की कामना का उल्लेख मिलता है। उस युग में भी धार्मिक कार्यो में बालिकाओं को बालकों के समान अवसर प्राप्त थे। अथर्ववेद में भी बालिकाएं ब्रह्मचर्य का पालन करती हुई विविध प्रकार की विधाओं में पारंगत होती थीं। ऐसी कन्याओं का भी उल्लेख मिलता है जिन्होंने तपस्या के बल पर अभिष्ठ वर की प्राप्ति की जैसे- उमा, धर्मव्रता आदि। शिक्षा के साथ ही वे नाना प्रकार के गायन, वादन एवम् नृत्य जैसी ललित कलाओं में भी प्रवीण थीं। इसप्रकार कन्याओं को वैदिक काल में भी उच्च स्थान प्राप्त था। बालकों की तरह शिक्षा ग्रहण करती हुई वे नाना प्रकार की विधाओं से विभूषित होती थीं। पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत लेकर शिक्षा ग्रहण करती हुई युवा होने पर उनका विवाह होता था। पत्नी के रूप में भी स्त्री को उच्च स्थान प्राप्त था। ब्रह्मवाद्नी स्त्रियाँ उपनिषद युग की विशिष्टता मानी जा सकती थी। ये स्त्रियाँ ब्रह्म विषयक व्याख्यान में अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर देती थीं। उस युग में वे महान दार्शनिकों से वाद-विवाद एवम् शास्त्रार्थ करती थीं। इस सन्दर्भ में मैत्रयी और गार्गी के संवाद का उल्लेख आता है। प्राचीन इतिहास में ‘सुलभा’ का नाम प्रसिद्ध है। सुलभा का संकल्प था कि जो कोई उसे शास्त्रार्थ में परास्त कर देगा उसी से वह विवाह करेगी पुरातन युग में भी ‘स्त्री’ सुगृहनी होने के साथ पति के सामाजिक एवम् राजनैतिक जीवन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थीं। यहाँ राजा कुन्तिभोज की पुत्री कुंती के नाम का उल्लेख अनुचित नहीं होगा। कुंती ने अपने आतिथ्य सत्कार से दुर्वासा जैसे क्रोधी ऋषि को प्रसन्न कर मनचाहा वर प्राप्त किया था। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि संहिता काल से लेकर महाकाव्य काल तक स्त्रियों को शिक्षा का पूर्ण अधिकार था। कहने का तात्पर्य यह है कि – आज के माता –पिता ये ना समझें की हमारी बेटी को हमने अधिक शिक्षित किया है। हाँ शिक्षित तो हमने किया है इसमे कोई दो राय नहीं है लेकिन हम संस्कार देने में कंजूसी करने लगे हैं। हम भूल रहे हैं कि हमारी बेटी एक नये घर की बहू होगी तथा हर माँ किसी न किसी की बेटी है और जिसे आज वो अपना घर कहती है, कभी उसके लिए भी नया और शायद अनजान था आज जितना आदर और सम्मान उसे इस नये घर में मिलता है उतना अब उस घर में नहीं होता होगा जहाँ उसने जन्म लिया और पली बढ़ी है। खासकर जब उसके माता-पिता इस दुनिया से चले जाते हैं  

यदि हम सभी माता–पिता अपनी बेटियों को शिक्षा के साथ – साथ अच्छी संस्कार दें, उनमें अच्छी भावनाओं का विकास करें तो उनका परिवार में मान-सम्मान बढ़ेगा और दोनों तरफ खुशियों का वातावरण बना रहेगा। आवश्यकता है कि हम सभी, अपनी बेटियों को शिक्षा के साथ–साथ यह संस्कार भी दें कि तुम दो घरों की भविष्य हो और दोनों घर को सम्भालने की जिम्बेदारी तुम्हारी है समय के साथ-साथ वही बहु जब माँ बनती है और जब समय आता है कि घर में उसकी भी बहु आती है तब तक वही बेटी इस नये घर की मालकिन हो जाती है। यही घर सहज ही उसका अपना हो जाता है। इसतरह हमें अपनी बेटियों में ये संस्कार देने ही होंगे की वो समझ सके कि वही बेटी उस नये घर की भविष्य (मालकिन) है। वह पराया धन नहीं है।

अब हम यदि देर करेगें तो शायद वृद्धा आश्रमों की संख्या और अधिक बढ़ते चले जायेंगे और हम भी कही न कही उस आश्रम में पड़े होंगे। हमें बेटों से अधिक बेटियों को शिक्षित करने की जरुरत है क्योंकि बेटी ही तो बहु और माँ होती है। लोग कहते हैं कि अमुक आदमी ने अपनी माँ-बाप को वृद्धाआश्रम छोड़ दिया। अगर बेटा को ही अपने माता–पिता को वृद्धाआश्रम छोड़ना होता तो विवाह से पहले भी तो छोड़ सकता था लेकिन विवाह के बाद ही ऐसा क्यों होता है ? क्यों ? आज की बेटियां सिर्फ एक घर को ही सम्भाल पा रहीं है जिसका उतरदायित्व उनके माता–पिता तक सीमित रहने लगा है। इस संकुचित सोंच को सामाजिक स्तर पर समझने की जरुरत है। यदि माता–पिता के प्रति अपने जिम्मेदारियों को समझते हुए पति सास–ससुर जो की जिंदगी भर का परिवार है उसे न भूले तो ना ही दोनों परिवार सुखी होंगे बल्कि समाज और देश का भी कल्याण होगा। युवा पीढ़ी के ऊपर अनावश्यक पारिवारिक चिंताएं और कलह हावी होने की जगह उन्हें देश हित में और समाज हित में सोंचने का अधिक से अधिक अवसर मिलेगा। ये बातें छोटी हो सकती है लेकिन बहुत महत्वपूर्ण है। हमें स्वीकारना होगा कि प्रदुषित आरम्भिक शिक्षा और बढ़ती पारिवारिक कलह के कारण युवाओं में चिंता और डिप्रेशन जैसी बीमारियाँ कम उम्र में ही हावी होने लगी हैं। जबकि अविवाहित पुरुष या स्त्री का समाज को एक अलग योगदान दिखाई दे रहा है। इस तरह से पारिवारिक जिम्मेदारियां सम्भालने में आज के युवा कहीं न कहीं कमज़ोर पड़ने लगे हैं। ये बहुत ही चिंता का विषय है और आज आवश्यक है कि हम विज्ञान और चिकित्सा के शिक्षा के साथ–साथ साहित्य और समाज अध्ययन पर भी विशेष ध्यान दें। जिससे हमारी आने वाली पीढ़ी सामाजिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों को और भी बेहतर ढंग से समझ सकें। डाक्टर, अभियंता नहीं हो सकता, अभियंता नेता और अभिनेता नही हो सकते लेकिन सभी डाक्टर, अभियंता, नेता और अभिनेता किसी न किसी के बेटा या बेटी हैं, किसी न किसी के पिता या माता हैं, किसी न किसी के भाई या बहन हैं और किसी न किसी के दादा और दादी जरुर बनेंगे। इसलिए पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों के महत्व को समझना और समझाना बहुत महत्वपूर्ण है।



निबन्ध : हिन्दी गद्य विधा का वैश्विक स्तर पर महत्व

जन जन की है भाषा हिन्दी, जन समूह की जिज्ञासा हिन्दी
जन जन में रची बसी है, जन मन की  अभिलाषा  हिन्दी ।।

वैश्विकरण का शाब्दिक अर्थ होता है किसी भी स्थानीय या क्षेत्रीय वस्तुओं का विश्व स्तर पर रूपांतर होना, 21वीं शताब्दी को अगर वैश्विकरण की शदी कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी आज वैश्विकरण के दौर में हिन्दी का महत्व और भी बढ़ गया है हिन्दी सम्पूर्ण भारत की जन–जन की भाषा है और अब तो हिन्दी विश्व स्तर पर एक प्रभावशाली भाषा बनकर उभरी है हिन्दी भाषा का एक गौरवपूर्ण इतिहास है विश्व में सर्वप्रथम सभ्यता व संस्कृति का विकाश भारत की भूमि पर ही हुआ था जिस उपजाऊ धरती पर ऋग्वेद, सांख्य, योग, दर्शन आदि का जन्म हुआ हो ऐसे देश की भाषा का अंदाज सहज रूप से नहीं लगाया जा सकता है विश्व भाषा के रूप में हिन्दी का विकास उसके गुणों के कारण ही हुआ है और हो रहा है

हिन्दी को वैश्विक भाषा का दर्जा मिलने के कई कारक हैं– हिन्दी व्यापार और व्यवसाय के लिए सहायक भाषा है भारत दुनिया का एक बहुत बड़ा बाजार है यहाँ के सभी लोग हिन्दी में बातें करते हैं, इसीलिए हिन्दी का महत्व व्यापारियों के लिए अधिक सहायक सिद्ध होता है आज वैश्विकरण के दौड़ में हिन्दी का महत्व और भी बढ़ गया है हिन्दी विश्व स्तर पर एक प्रभावशाली भाषा बनकर उभरी है पत्रकारिता के क्षेत्र में भी हिन्दी का स्थान प्रथम है आज विश्व में सबसे अधिक पढ़े जाने वाले समाचार पत्रों में आधे से अधिक हिन्दी भाषा में हैं ‘दैनिक भास्कर’ समाचार पत्र की रोज 1 करोड़ 60 लाख प्रतियां छपती हैं जबकि अंग्रेजी पत्र ‘टाइम्स आफ इंडिया’ की 75 लाख प्रतियां छपती हैं इसका आशय यह है कि पढ़े–लिखे वर्ग में भी हिन्दी के महत्व को समझा जाने लगा है भारत में सबसे अधिक बिकने वाला समाचार पत्र हिन्दी भाषा के हैं जबकि अंग्रेजी समाचार पत्र का स्थान दसवां है आज भारतीय महाद्वीप ही नहीं बल्कि दक्षिण पूर्व एशिया, मॉरीसस, चीन, जापान, कोरिया, श्रीलंका, रूस, नेपाल, खाड़ी देशों और अमेरिका तक हिन्दी कार्यक्रम उपग्रह चैनलों के जरिये प्रसारित होता है हिन्दी के दर्शक भी भारी तादाद में हैं हिन्दी अब नई प्रौद्योगिकी के रथ पर सवार होकर विश्वव्यापी बन रही है कम्प्युटर युग के प्रारम्भ में कहा जाता था की अब हिन्दी पिछड़ जाएगी क्योंकि कम्प्युटर पर केवल अंग्रेजी में ही कार्य किया जा सकता है लेकिन अब स्थिति बदल गई है ‘अंतरजाल’ के माध्यम से हिन्दी के कई वेबसाइट है ‘यूनिकोड’ के माध्यम से कम्प्यूटर पर अब किसी भी भाषा में कार्य करना आसन हो गया है आज ई–मेल, ई–कामर्स, ई–बुक, इंटरनेट, एस एम एस एवं वेब जगत में भी हिन्दी का प्रयोग बहुत ही सरलता से पाया जा सकता है आज किसी भी देशी या विदेशी कंपनी को अपना कोई उत्पाद बाजार में उतरना होता है तो उसकी पहली नज़र हिन्दी के क्षेत्र पर पड़ती है उन्हें बखूबी पता है कि हिन्दी आम लोगों के साथ–साथ उपभोक्ता की भी भाषा है इसी के परिणाम स्वरूप धीरे–धीरे हिन्दी वैश्विक अथवा ग्लोबल बनती जा रही है इसके अतिरिक्त, गूगल, ओरेकल, सन, आईबीएम आदि जैसी विश्वस्तरीय कम्पनियाँ अत्यंत व्यापक बाजार और भारी मुनाफे को देखते हुए हिन्दी को अधिक बढ़ावा दे रही हैं विश्व में आज हिन्दी का विकास उसके गुणों के कारण ही हो रहा है

भाषा संस्कृति का दर्पण है किसी भी भाषा को देखकर उसकी संस्कृति का अनुमान लगाया जा सकता है भारतीय संस्कृति का आधार ‘शांति’, ‘अहिंसा’ और ‘सत्य’ है भारत की सांस्कृतिक समरसता ही इस देश की आत्मा रही है यह समरसता विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों, रीति-रिवाजों, सामाजिक संस्थाओं, उधोग-धंधो, ज्ञान-विज्ञान आदि में व्याप्त है साहित्यिक, धार्मिक तथा सामाजिक चेतना के लिए हिन्दी की पहचान दुसरे देशों में भी है जैसे- फ्रांस, चीन, आस्ट्रेलिया, इजरायल आदि  यूरोपीय देशों में भी हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार में बहुत महत्वपूर्ण काम किये गये हैं इनमे फ्रांस का नाम पहले आता है वर्तमान की बात करें तो अमेरिका के 35 विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाती है इनमें प्रमुख है-  टेक्सास, हारवर्ड, होनोलूलू आदि भारत के स्वतंत्रता संग्राम में प्रवासी भारतीयों ने हिन्दी भाषा के प्रति निरंतर सहयोग एवं भारतीयता के प्रति अनुराग का परिचय दिया है महात्मा गांधी के शब्दों में- ‘मेरा ये मत है कि हिन्दी ही हिंदुस्तान की राष्ट्र भाषा हो सकती है और होनी भी चाहिए’ महात्मा गाँधी जी ने देश भर में ‘हिन्दी’ के प्रचार–प्रसार के लिए हिन्दी संस्थाओं और समितिओं का गठन किया ‘दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, मद्रास’ की स्थापना उन्ही की प्रेरणा का फल है फादर कामिल बुल्के के शब्दों में– ‘हिन्दी न केवल देश के करोड़ों लोगों की सांस्कृतिक और सम्पर्क भाषा है वरन बोलने और समझने वालों की संख्या की दृष्टि से दुनिया की तीसरी भाषा हैफादर कॉमिल बुल्के वेल्जियम के रहने वाले थे वे हिन्दी के विद्वान और समाज सेवी थे उन्होंने अपना विधिवत पहला शोध कार्य ‘राम कथा’ पर किया बुल्के ने ‘राम कथा’ और ‘रामचरित मानस’ को बौद्धिक जीवन दिया बुल्के ने अपनी थीसिस हिन्दी में लिखी थी फादर बुल्के ने ‘संस्कृत भाषा को महारानी, हिन्दी को बहुरानी और अंग्रेजी को नौकरानी’ कहा है

‘वैश्विकरण की एक और देन है- ‘अनुवाद’ आज अनुवाद की उपयोगिता का लाभ सबसे अधिक फिल्मों को मिल रहा है परिणाम स्वरुप अंग्रेजी फ़िल्म ‘द ममी रिटर्न’ को 2001 में 23 करोड़ रुपयों का लाभ हुआ इसी प्रकार कई फिल्मों का अनुवाद हिन्दी में तथा हिन्दी फिल्मों का अनुवाद कई अन्य भाषओं में हो रहा है वैश्विकरण का जो प्रभाव भाषा पर पड़ता है वह एकतरफा नहीं है विश्व के सभी भाषाओं पर एक दुसरे का प्रभाव है गत पचास वर्षो में हिन्दी की शब्दों का जितना विस्तार हुआ है उतना विश्व की शायद ही किसी भाषा में हुआ हो इस प्रकार हिन्दी हिन्दुस्तान में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के विराट फलक पर अपने अस्तित्व को आकार दे रही है अब हिन्दी विश्व भाषा के रूप में मान्यता प्राप्त करने की ओर आगे बढ़ रही है अभी तक भारत और भारत से बाहर दस ‘हिन्दी विश्व सम्मलेन’ आयोजित हो चुके हैं यह हिन्दी के व्यापकता की पहचान है हिन्दी को अंतरराष्ट्रीय ऊचाई पर पहुँचाने में भारत के तीन बड़ी संस्थाओं का महत्वपूर्ण योग दान हैं पहला – केन्द्रिय हिन्दी संसथान, आगरा दूसरा – भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद्, नई दिल्ली जो भारतीय विदेश मंत्रालय के अधीन आता है तीसरा – महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्व विधालय, वर्धा (महाराष्ट्र) है संयुक्त राज्य अमेरिका में सन 1975 ई. में हिन्दी भाषा का व्याकरण अमेरिकी निवासी ‘सैमुल कैलाग’ ने ‘हिन्दी का अनुशीलन’ तैयार किया हिन्दी व्याकरण की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है सोवियत रूस और भारत की दोस्ती जग जाहिर है, क्योंकि इस मित्रता का आधार सांस्कृति है महाकवि तुलसीदास के ‘रामचरित मानस’ का सफल अनुवाद ‘वेरनिन्कोव’ ने किया हैं अन्य महत्वपूर्ण रुसी हिन्दी विद्वान वी. चेरनिगोव, वी क्रेस कोविन एवं बाबालिन है जिन्होंने पिछले कई दशकों से रूस में हिन्दी भाषा के विविध विषयों पर जैसे- आर्थिक, सामाजिक, राजनितिक पुस्तकें प्रकाशित की है प्राथमिक स्तर से लेकर विश्वविधालय स्तर तक हिन्दी पढ़ाने की उतम व्यवस्था, रूस के विघटन के वावजूद आज भी सतत चल रहा है

मॉरीसस एक हिन्दी बाहुल्य देश है मॉरीसस की आबादी का उनहत्तर प्रतिशत लोगों की मातृभाषा हिन्दी ही है मॉरीसस की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए वहाँ के खेल मंत्री ने कहा था– “मॉरीसस में हिन्दी के प्रति बहुत उत्साह है, हिन्दी हमारी संस्कृति, धर्म तथा उन्मुक्त चिंतन की भाषा है” सुप्रसिद्ध लेखक डा. धर्मवीर भारती के शब्दों में– मैं संसार में मॉरीसस को विशेष महत्वपूर्ण दृष्टि से देखता हूँ क्योंकि यह एक ऐसा देश है जिसने अपनी आजादी की लड़ाई हिन्दी के सहारे लड़ी आज समय की मांग है कि हम सब मिलकर हिन्दी के विकाश यात्रा में शामिल हो जाए हमारी आधुनिकता तब तक पूरी नहीं होगी जब तक हम अपनी भाषा को साथ में लेकर नहीं चलेगें विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है, जहाँ हजारों भाषाओं, बोलियों तथा लिपियों का भारी खजाना है इन भाषओं से हमारी विभिन्न संस्कृतियाँ और परम्पराएँ भी जुडी हुई है जो हरेक भारतीयों के सपने और उम्मीदों की धड़कने हैं आज हम भले ही अंग्रेजी के चंगुल में फंस गए हो लेकिन हिन्दी भाषा में जो हमारे देश की मिट्टी की सोंधी–सोंधी सुगंध है वो किसी भी और भाषा में नहीं है भारतेंदु के शब्दों में–
‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को शूल

भारत की सदियों पुरानी उक्ति है- ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ अथार्त सारा धरती हमारा परिवार है आचार्य विनोबा भावे जी ने अभिव्यक्त किया था– ‘हिन्दी को गंगा नहीं समुंद्र बनाना होगा’ अब हमें उस दिन का अधिक इंतजार नहीं करना पड़ेगा, आज हिन्दी ने अपनी विश्व स्तरीय यात्रा पूरी कर ली है विश्व मंच पर यह सम्मान हिन्दी को प्राप्त हो गया है ये अलग बात है की विकाश का रथ कभी रुकता नहीं वल्कि निरन्तर अपने संघर्ष पथ पर चलता रहता है और हिन्द भी उसी मार्ग पर सदा आगे बढ़ रही है आइए हम अपनी इस संकल्प को समझें -
हिन्दी हमारी आन है, हिन्दी हमारी शान है
विश्व  में हिन्दी से ही,  हमारी पहचान है।।

‘जय हिन्द’

हिन्दी साहित्य के मुस्लिम लेखक : गंगा जमुनी तहज़ीब (रसखान)

हिन्दी साहित्य के इतिहास में आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक अनेकों मुसलमान लेखकों ने हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने में विशेष भूमिका निभाई है। उसीप्रकार कई हिन्दू रचनाकारों ने भी उर्दू साहित्य को समृद्ध करने का काम किया है। हिन्दी साहित्य के रीतिकाल में रीतिमुक्त धारा के कविओं में रसखान का महत्वपूर्ण स्थान है। रसखान के जन्म-स्थान के सम्बन्ध में कई मतभेद पाया जाता है। कुछ लोगों ने ‘पिहानी’ अथवा ‘दिल्ली’ को इनका जन्म-स्थान बताया है। रसखान के जन्म संवत् में भी विद्वानों में मतभेद हैI कुछ विद्वान् इनका जन्म संवत् 1615 तथा कुछ 1630 मानते हैंI जन्म-स्थान तथा जन्म के समय की तरह रसखान के नाम एवं उपनाम के सम्बन्ध में भी अनेकों मतभेद है। हजारीप्रसाद व्दिवेदी के मतानुसार रसखान के दो नाम हैं - ‘सैय्यद इब्राहिम’ और ‘सुजान रसखान’। रसखान एक पठान जागीरदार के पुत्र थे। संपन्न परिवार में पैदा होने के कारण उनकी शिक्षा उच्चकोटी की थी। रसखान को फारसी, हिन्दी एवं संस्कृत का अच्छा ज्ञान था जिसे उनहोंने ‘श्रीमदभागवत्’ का फारसी अनुवाद करके साबित कर दिया था। रसखान की कविताओं के दो संग्रह प्रकाशित हुए हैं। ‘सुजान रसखान’ और ‘प्रेमवाटिका’। ‘सुजान रसखान’ में 139 सवैया तथा ‘प्रेमवाटिका’ में 52 दोहे हैंI कहा जाता है कि दिल्ली में रसखान एक बनिए के पुत्र से असीम प्रेम करते थेI कुछ लोगों ने रसखान से कहा कि यदि तुम इतना प्रेम भगवान से करोगे तो तुम्हारा उद्धार हो जायेगा। फिर रसखान ने पूछा कि भगवान हैं कहा? तब किसी ने उन्हें कृष्ण भगवान का एक तस्वीर दिया जिसे लेकर रसखान भगवान की तलाश में ब्रज पहुँच गए। वहाँ उसी चित्रवाला स्वरूप का उन्हें दर्शन हुआ। बाद में उनकी मुलाकात गोसाईजी से हुई जिन्होंने रसखान को अपने मंदिर में बुला लिया। रसखान वहीं रहकर कृष्ण की लीलागान करने लगे और आगे चलकर उन्हें गोपी भाव की सिद्धि प्राप्त हुई। जिसकी चर्चा उन्होंने ‘प्रेमवाटिका’ में किया है। रसखान को ‘रस’ की ‘खान’ कहा जाता है। इनके काव्य में ‘भक्ति’ और ‘श्रृंगार’ रस दोनों की प्रधानता है। रसखान मूलतः श्याम भक्त हैं और भगवान के ‘सगुण’ तथा ‘निर्गुण’ दोनों रूपों के प्रति श्रद्धालु हैं। वे आजीवन भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं को काव्य के रूप में वर्णन करते हुए ब्रज में ही निवास किए। रसखान कृष्ण की बालरूप का वर्णन करते हुए कहते हैं-
“धुरी भरे अति शोभित श्यामजू तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी।
खेलत खात फिरे अंगना  पग पैजनी बाजति पीरी कछोटी।I”        

रसखान तो कृष्ण भक्ति में इतने समर्पित हो गए थे कि मनुष्य से अधिक भाग्यशाली उस पक्षी को मानते थे जिसे एक रोटी के टुकड़े के बहाने भगवान श्रीकृष्ण का स्पर्स हो जाता है। वह भी पक्षी कौन? ‘कौआ’ जिसे आम तौर पर कभी भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता है, उसी पक्षी का कृष्ण से स्पर्श हो जाने के कारण उसे भाग्यशाली मानते हुए रसखान कहते हैं –

“वा छवि को  रसखान विलोकत वारत काम कलानिधि कोटि।
 काग के भाग बड़े सजनी, हरी हाथ सौं ले गयो माखन रोटी”II

इन पंक्तियों में वे कृष्ण की बाल स्वरूप का चित्रण करते हुए उसपर कामदेव के करोड़ों कलाओं को निछावरकर देते हैं। वे कृष्ण के प्रति इस तरह से समर्पित थे कि उन्हें यत्र-तत्र सर्वत्र कृष्ण ही कृष्ण दिखाई देते थे। कृष्ण के बिना जैसे जिंदगी अधूरी थी। उनके रग-रग में कृष्ण बसे थे। वे अगले जीवन में भी चाहे जिस रूप में धरती पर जन्म लें, कृष्ण की समीपता की अभिलाषा मन में सदैव पाले हुए थे। जन्म चाहे मनुष्य के रूप में हो या पशु के, पत्थर हो या पक्षी ही क्यों न बनें लेकिन निवास कृष्ण के समीप ब्रज में ही होना चाहिएI

  “मानुष  हो तो  वही रसखान, बसों  बृज गोकुल गाँव के ग्वारन।
  जो पशु हो तो कहा बस मेरो, चरो नित नन्द की धेनु मंझारण।I
  पाहन हौं तो वही  गिरी को, जो धरयो  कर छत्र  पुरंदर कारन।
  जो खग हो तो बसेरो करो नित, कालिंदी फूल कदम्ब की डारन।I”

रसखान कृष्ण के अनेक लीलाओं का वर्णन कियें हैं – कुंजलीला, पनघटलीला, वनलीला आदि। ‘कृष्णबाललीलाओं’ के वर्णन में लिखे गये उनके पद को गाकर मन आनंदित हो जाता है।

    “कर  कानन  कुंडल  मोर  पखा, उर पै  बनमाल बिराजती हैं।
    मुरली  कर  में अधरा  मुसुकानी, तरंग  महाछबि  छाजत हैंII
    रसखानी  लखै तन पीतपटा, सत दामिनी  की दुति लाजती हैंI
    वह बाँसुरी की धुनी कानी परे, कुलकानि हियो तजि भाजती हैII”
 
रसखान कवि कहते हैं कि जिस ब्रह्म को ब्रह्मा, विष्णु, गणेश, महेश आदि सभी देव निरंतर जाप करते हैं, जिसे सभी देवि-देवता एवं वेद-पुराण अनंत, अखंड, अछेद और अभेद बताते हैं, नारद और व्यास मुनि जिनकी स्तुति-गान करते हैं, उस ब्रह्म को ग्वालबालाएँ थोड़ी सी छांछ के लिए नाचने के लिए विवश कर देती हैं।

    “सेस  गनेस  महेस  दिनेस, सुरेसहु  जाहि  निरंतर  गावै।
    जाहि अनादि  अनंत अखण्ड, अछेद  अभेद  सुबेद बतावैं।I
    नारद  से  सुक व्यास रटै, पचिहारे तऊ पुनि पार न पावैं।
      ताहि अहीर की छोहरिया, छछिया भर छाछ पै नाच नचावैं।I”

ब्रह्म में समर्पण का शब्दों में चित्रित करने की ये अनोखी कला, रसखान के अतिरिक्त किसी भी कवि की रचनाओं में नहीं मिलता हैI  रसखान की भक्ति श्रीकृष्ण में है। वे कृष्ण के लिए त्रिलोक का त्याग करने को तैयार है। वे नन्द बाबा के गायों को चराने में आठों सिद्धियों और नवों निधिओं के सुख को भी भुला सकते हैंI

    “या  लकुटी अरु  कमरिया पर, राज  तिहूँ पुर को तजि डारौं।
    आठ्हूँ सिद्धि नवों निधि को सुख, नंद की धेनु चराय बिसारौं।I
    रसखान कबौ इन आँखिन सों, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
    कोटिक  हू  कलधौत  के धाम, करील  के  कुंजन ऊपर वारौंII”

रसखान व्रज के वनों एवं उपवनों पर सोने के करोड़ों महल निछावर करने को तैयार हैं।

भक्ति की महिमा में मोक्ष के अनेक साधन बताये गए हैं। जैसे – कर्म, ज्ञान और उपासना। रसखान के अनुसार – भक्ति का प्रेम इन सब में श्रेष्ठ है। इसी अभिप्राय से रसखान ने इस परम प्रेम को कर्म आदि से परे कहा है। रसखान की मान्यता है कि जिसने प्रेम को नहीं जाना, उसने कुछ भी नहीं जाना और जिसने प्रेम को जान लिया, उसके लिए कुछ भी जानने योग्य नहीं हैI संसार में जितने भी सुख है, उन सब में भक्ति का सुख सबसे बढ़कर है। दुःख के नाश होने और आनंद की प्राप्ति के लिये ज्ञान, ध्यान आदि जितने भी साधन बतलाएं गए है, वे सभी प्रेम-भक्ति के बिना निष्फल है। सामान्य रूप से जीव के चार पुरुषार्थ बताया गया है - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इन चारों में मोक्ष सबसे महान है परन्तु प्रेम-भक्ति की तुलना में मोक्ष भी तुक्ष है। प्रेम भक्ति की श्रेष्ठता का एक कारण और भी है  वह यह कि इस संसार में जितने भी साधन और साध्य हैं वे सभी भगवान के अधीन हैं और भगवान स्वयं प्रेम के वश में हैं। वे अपनी रचनाओं में कहते हैं -  
    “प्रेम प्रेम सब  कोऊ करत, प्रेम न जानत कोय।
     जो  जन  जानै  प्रेम तो, मरै जगत क्यों रोय।I”

 रसखान ने समस्त शारीरिक अवयवों तथा इन्द्रियों की सार्थकता तभी मानी है जिससे वे प्रभु के प्रति समर्पित रह सकें।

“जो  रसना  रस ना  बिलसै  तेविं  बेहू सदा  निज नाम उचारन।
मो  कर  नीकी  करे  करनी जु  पै  कुंज कुटीरन  देह  बुहारन।
सिद्धि - समृद्धि  सबै  रसखानि लहौं ब्रज  रेणुका  अंग  सवारन।
खास निवास मिले जु पै तो वही कालिंदी कूल कदम्ब की डारन।I”
कृष्ण के भक्ति में डूबे कवि रसखान अपने आराध्य से विनती करते हुए कहते  हैं कि मुझे सदा आपके नाम का स्मरण करने दो ताकि मुझे मेरी जिह्वा को रस मिले। मुझे अपने कुंज कुटीरों में झाड़ू लगाने दो ताकि मेरे हाथ सदा अच्छे कर्म कर सकें, व्रज की धूल से अपना शरीर सवांर कर मुझे आठों सिद्धियों का सुख लेने दो और निवास के लिए मुझे विशेष जगह देना ही चाहते हो तो यमुना के किनारे कदम्ब की डाल ही दे दो जहाँ आपने (कृष्ण) अनेकों लीलाएँ रची हैं।
रसखान के पदों में कृष्ण के अलावा कई और देवताओं का भी ज़िक्र मिलता है। शिवजी की सहज कृपालुता की ओर संकेत करते हुए वे कहते हैं कि उनकी कृपा दृष्टि संपूर्ण दुखों का नाश करने वाली है-

“यह देखि धतूरे के पात चबात औ गात सों धूलि लगावत है।
 चहुँ  ओर जटा  अंटकै लटके फनि  सों कफ़नी पहरावत हैं।I
 रसखानि  गेई  चितवैं  चित  दे तिनके दुखदुंद  भाजावत हैं।
 गजखाल कपाल की माल विसाल सोगाल बजावत आवत है।I

उन्होंने गंगा जी की महिमा का भी वर्णन किया है –

“बेद की औषद खाइ कछु न करै बहु संजम री सुनि मोसें।
तो जलापान कियौ रसखानि सजीवन जानि लियो रस
तोसें।
एरी सुघामई भागीरथी नित पथ्य अपथ्य बने तोहिं पोसें।
आक धतूरो चबात फिरै विष खात फिरै सिव तेरै भरोसें।“

इस महान साहित्यकार की देहावसान संवत 1671 के बाद मथुरा – वृदावन में माना जाता है। उन्होंने स्वयं कहा है –
      “प्रेम  निकेतन  श्री बनहि  आई  गोवर्धन धाम।
       लहयो शरण चित चाहि कै, जुगत स्वरुप ललाम।I”

इसप्रकार हम देखते हैं कि धर्म और जाति से ऊपर उठकर हिंदू कवि और लेखकों ने उर्दू के माध्यम से तथा मुस्लिम लेखकों एवं कवियों ने हिन्दी में अपनी रचनाएँ देकर साहित्य और समाज दोनों को समृद्ध किया है। इस विरासत से हमें आज की बिगड़ती राजनितिक माहौल में बहुत कुछ सीखने को मिलता है -

“हम राम कहें या रहीम कहें दोनों का सम्बन्ध अल्लाह से है।
  हम दीन कहें या  धरम कहें  मनसा तो उसी की राह से है।I”



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मन्नू भण्डारी की कहानियों में यथार्थ बोध

विषयाअनुक्रमिका अध्याय: 1. कहानी की विधाएँ 2. कहानी के तत्व ३. कहानी की परिभाषा ४. कहानी का उदभव और विकास ५. मन्नू मन्नू भंड...